Friday, May 25, 2007

तनहाई

जब भी ख़ुद को तन्हा पाया,
फिर सोचा कुछ यार लिखूं |
लिख दूं काग़ज़ पर बात सभी,
या सब बातों का सार लिखूं |


पर क्या दिल की सारी बातें,
एक काग़ज़ पर आ सकती हैं |
क्या मेरे जस्बात कभी,
ये स्याही लिख सकती है |

फिर सोचा अस्क बहाना क्या,
बीते पर फिर पछताना क्या |
गर टुटे हैं कुछ सपने तो,
सपनों का शोक मनाना क्या |

फिर सोचा की मुस्कान लिखूं,
दिल के नूतन अरमान लिखूं |
लिख दूं ममता का मैं आँचल,
घर के आँगन की शाम लिखूं |

पर यार सुहाने पल भी अब,
दिल में कुछ ऐसे चुभते हैं |
ताज रखा हो जब सर पर,
पर पैर मे कांटें चुभतें हो |

फिर सोचा कोई मुझसा होता,
मैं जिसको हाल सुना पाता |
कुछ सुनता मैं बातें उसकी ,
कुछ अपने अस्क बहा पाता |

फिर सोचा कोई मुझसा हो,
या फिर मैं उस जैसा हूँ |
पर यार नही मुझसा कोई ,
और ना मैं ही उस जैसा हूँ |

फिर सोचा क्या तनहाई है,
क्या किस्मत उसने पाई है |
हर पल मैं साथ रहूं उसके ,
फिर भी इतना सकुचाई है |

बातों का सार नही होता,
पर बातें संसार चलाती है |
कुछ बातें उड़ती हैं नभ मे,
और कुछ बातें दब जाती है|

3 comments:

  1. बहुत ही सुंदर कोशिश की है आपने कई भाव बहुत सुंदर लगे जैसे ...

    जब भी ख़ुद को तन्हा पाया,
    फिर सोचा कुछ यार लिखूं /
    लिख दूं काग़ज़ पैर बात सभी,
    या सब बातों का सार लिखूं

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  2. kavita bahut hi sunder hai. vartani dosh ke chalte tanik padhne me adchan hui.

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  3. बहुत ही सुंदर कोशिश की है आपने कई भाव बहुत सुंदर लगे

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