Monday, December 17, 2007

कुछ खो जाने का ग़म

अपनी राहों से उन्हें बच के निकलते देखा ,
खुली आँखों से हमने चांद को ढलते देखा

नही थी बात कोई भी जो दुख दे दिल को ,
छोटी सी बात को फिर तूल पकड़ते देखा


शरीर जिसका हवाओ से सिहर उठता था ,
जमीने दफन मे उनको फिर टहलते देखा
हमारे शहर मे थी लाज कि मूरत कल तक,
सरे बाज़ार मे उसको ही फिर बिकते देखा

पढा करता था जिसके नाम के हरदम सदके,
उन्ही को नाम पर लानत मेरी पढ़ते देखा
तमाम करके कोशिशें जिसे हंसा न सके ,
उन्ही को कब्र पर आते हुए हँसता देखा

सती थी यार जो कल तक और रुप सीता थी,
उसी को साथ रावण के फिर विचरते देखा
सजा करती थी कल तक थाल अब तक पूजा में,
आनंद खून से उसको यहाँ फिर लिपटा देखा

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