Sunday, September 21, 2008

कुछ मृग-त्रिस्ना की प्यास भी हो

एक बार मुझे मई मिल जाऊ ,
खुद के सपनो मे दिख जाऊ |
मंज़िल की चाह जागे दिल मे,
जिस पथ पर मैं पग धार जाऊ |

कुछ यार अहम का भाव भी हो,
सब कुछ पाने की चाह भी हो |
हो शूल बिछे कुछ राहों मे ,
कुछ प्रतिस्पर्धा का भाव भी हो |

मुझको ठुकरा कर जाने में ,
उसे दर्द का कुछ आभाष तो हो |
वो भूल ना पाए यार मुझे ,
इस बात का फिर विश्वास तो हो |

है बना काँच का तन मेरा ,
जब टूटे तब झंकार भी हो |
है सांस बची जब मरुथल मे,
कुछ मृग-त्रिस्ना की प्यास भी हो |

मेरे यार खुशी के मौके पर ,
कुछ अस्कों की बौछार भी हो |
प्यार मिले कुछ पाने पर,
कुछ खोने पर फटकार भी हो |

कुछ खून मे हो गर्मी अपने,
कुछ यार छमा का भाव भी हो |
कुछ रिस्टो मे हो कड़ुआहट,
कुछ रिस्तो मे बस प्यार ही हो|||||||

3 comments:

  1. अपने मनोभावों को रचना द्वारा बहुत बढिया पेश किया है।बधाई।

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  2. भाई सच में तुम आदमी नहीं अंडा हो !

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