Thursday, October 9, 2008

मैं बचपन मे कितना सच्चा था |





यूँ घुट घुट कर जीने से,
मेरा मर जाना अच्च्छा था |

क्यूँ पंख कतर कर छोड़ दिया,
इससे अच्छा वो पिंजरा था |

छलक रहा हूँ इधर उधर,
इससे अच्छा मै सूखा था |

यों कमर पर चढ़ इतराने से,
मैं कच्चा घट ही अच्छा था |

जल मग्न हुई इस दुनिया मे,
मेरा सुखापन अच्छा था. |

मरु बनकर उड़ता मरूभूमि मे,
मै खो जाता तो अच्छा था |

अर्ध नग्न हुई इस दुनियाँ मे,
मै पूरा नंगा ही अच्छा था |

यौवन के ज्वलन उजाले से
मेरा अंधेरा बचपन अच्छा था |

मुझे याद हैं वो बातें सारी
मैं बचपन मे कितना सच्चा था |

3 comments:

  1. मुझे याद हैं वो बातें सारी
    मैं बचपन मे कितना सच्चा था |
    बहुत अच्छी रचना...सच्ची भी.
    नीरज

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  2. bhai bahut badhiya!!!

    Loved it!!

    Abhinav from your college!!!

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  3. thanx abhinav......

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