Sunday, January 25, 2009

शब्दों का षडयंत्र

कभी-कभी ये शब्द मेरे,
मुझसे बेईमानी करते है|
ख़ुद को इधर उधर करके,
कुछ अनचाहा सा गढ़ते है |

भाव का होता है आभाव,
रस अलंकार से लड़ते है |
कभी कभी पन्ने मेरे ,
कुछ चितकबरे से दिखते हैं |

पहले मैं यही समझता था,
मैं जादूगर हूँ शब्दों का |
पर उलझाकर ये मुझको,
बस अपने मन की करते है |

पर ये सच है शब्द मेरे,
मुझको पहचान दिलाते है |
मेरे दिल की बातों को,
ये कागज पर ले आते है |

ये भी सच है इनके बिन,
" आनंद" का अस्तित्व नही |
हो उबड़ खाबड़ जैसी भी,
पहचान मेरी बस इनसे ही |

कभी-कभी ये शब्द मेरे,
मुझसे बेईमानी करते है|
ख़ुद को इधर उधर करके,
कुछ अनचाहा सा गढ़ते है

11 comments:

  1. शब्दों का कितना संजीव वर्णन किया है आपने ...मान गए

    अनिल कान्त
    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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  2. कभी-कभी ये शब्द मेरे,
    मुझसे बेईमानी करते है|
    ख़ुद को इधर उधर करके,
    कुछ अनचाहा सा गढ़ते है
    सही लिखा हे.
    आपको गणतंत्र दिवस पर हार्दिक शुभ कामना

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  3. अरे बहुत सुंदर लिखा आप ने इन शव्दो का खेल,
    धन्यवाद

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  4. बहुत सुंदर वर्णन शब्दों के खेल का । बधाई ।

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  5. अरे वाह ! आपको पढकर तो मज़ा ही आगया !

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  6. जी हां , सब शब्‍दों का ही तो खेल है....आप सबों को गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएं।

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  7. आप सभी के प्यार और परामर्श का मुझे लिखने की प्रेरणा देता है |
    कृपया अपना स्नेह इसी प्रकार बनाये रखे और कमेन्ट जरूर दे .......

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  8. पर ये सच है शब्द मेरे,
    मुझको पहचान दिलाते है |
    मेरे दिल की बातों को,
    ये कागज पर ले आते है |

    -बिल्कुल सही कहते हैं--शब्द ही तो पहचान दिलाते हैं
    गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें

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  9. बिल्कुल सही
    गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें...

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  10. बहुत सुन्दर और प्रभावशाली रचना

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  11. bahut sunder yahan bhi aapne apne shabdon kaa khel dikha hi dya

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