Tuesday, September 29, 2009

मर्यादा और संसद

जुते चप्पल चला रहे हैं, न्याय के ठेकेदार यहाँ |
मर्यादा का चिर हरण, है सदनों का पर्याय यहाँ ||

शर्म नहीं जिनके अन्दर, ये ऐसे बड़े कलंदर है |
जो फूंके घर खुद अपना, ये वो कलाबाजी बन्दर हैं ||

स्तर उठा रहे संसद का, ये अमर्यादित वचनों से |
फूंक रहे जनता कि दौलत, अपने अपने सपनो पर ||

चोर उचक्कों गुंडों तक से, सबका हिस्सा बंधा हुआ,
जिसकी सत्ता आती है, वो ही बन जाता जोंक नया ||

कुछ खाते हैं चन्दों से, कुछ जन्मदिवस पर खाते है|
जनता सुख भले जाये, ये पार्क नया बनवाते है ||

कोई खता है मंदिर का, कोई मस्जिद कि खाता है|
कौन बताएगा हमको कि, ये पैसा कहाँ से आता है| |

हैं आज करोणों के मालिक, जो कल टुकडों पर जीते थे |
मदिरा बहती है उसके घर, जो कल तक पानी पीते थे ||

जनता के मेहनत का पैसा, कला धन बन जाता है 
सौ रुपया चलते चलते, जब दस रुपया बन जाता है | |

आय पर कर न देने पर, हम चोर यहाँ बन जाते है|
जो रोज घोटाला करते है, वो बा इज्ज़त बच जाते है ||

जुते चप्पल चला रहे हैं, न्याय के ठेकेदार यहाँ |

मर्यादा का चिर हरण, है सदनों का पर्याय यहाँ ||

4 comments:

  1. बिल्कुल सही कहा!!

    बेहतरीन रचना.

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  2. अजी आपने तो सब के राज खोल दिये, बहुत सुंदर लगी आप की यह कविता.
    धन्यवाद

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  3. ........ बेहद प्रभावशाली

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