Tuesday, October 6, 2009

डर क्यूँ है?

अकेला ही चला था,
साथ अपनो का तज के|
जो मेरे साथ न था,
फिर उससे शिकायत क्यूँ है?

जब मैं यहाँ हर मोड़ पर,
अपनो से बचता आया हूँ|
आज इस मोड़ पर ,
अपनों कि जरूरत क्यूँ है?

जब नहीं सोचा कि,
अंजाम क्या होगा इसका |
आज उसी सोच से,
आनंद मुझे घिन्न क्यूँ है?

छुपाता हूँ मैं खुद को,
सैकडों चहरे के तले |
मैं जैसा हूँ नहीं,
फिर वैसा दिखावा क्यूँ है?

जहां जाता हूँ मै,
आनंद बदल जाता हूँ |
रेशमी रूह पर फिर,
खद्दर का चढावा क्यूँ है?

बना रखा है फिर,
काजल से घरौंदा अपना |
पतित होकर भी मुझे,
दाग से नफ़रत क्यूँ है?

किया है काम जैसा,
फल भी वैसा ही होगा |
जब नहीं मानता फिर,
रब से इतना डर क्यूँ है?

6 comments:

  1. बहुत खूब

    जहां जाता हूँ मै,
    आनंद बदल जाता हूँ |
    रेशमी रूह पर फिर,
    खद्दर का चढावा क्यूँ है?

    सही कहा सुन्दर रचना

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  2. वाह बहुत सुन्दर फिर डर क्यों जब अकेले आये थे और अकेले जाना है ...बहुत सही सुन्दर रचना . बधाई .

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  3. हमारे आज को बेनक़ब करती हुई पंक्तियाँ :-

    छुपाता हूँ मैं खुद को,
    सैकडों चहरे के तले |
    मैं जैसा हूँ नहीं,
    फिर वैसा दिखावा क्यूँ है?


    बहुत अच्छी लगी रचना।

    सादर,


    मुकेश कुमार तिवारी

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  4. aap sabhi ka bahut bahut dhanyawad!!

    tapashwani

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  5. बहुत बढिया रचना है बधाई स्वीकारें।

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  6. बना रखा है फिर,
    काजल से घरौंदा अपना |
    पतित होकर भी मुझे,
    दाग से नफ़रत क्यूँ है?

    इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....

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