Sunday, January 25, 2009

शब्दों का षडयंत्र

कभी-कभी ये शब्द मेरे,
मुझसे बेईमानी करते है|
ख़ुद को इधर उधर करके,
कुछ अनचाहा सा गढ़ते है |

भाव का होता है आभाव,
रस अलंकार से लड़ते है |
कभी कभी पन्ने मेरे ,
कुछ चितकबरे से दिखते हैं |

पहले मैं यही समझता था,
मैं जादूगर हूँ शब्दों का |
पर उलझाकर ये मुझको,
बस अपने मन की करते है |

पर ये सच है शब्द मेरे,
मुझको पहचान दिलाते है |
मेरे दिल की बातों को,
ये कागज पर ले आते है |

ये भी सच है इनके बिन,
" आनंद" का अस्तित्व नही |
हो उबड़ खाबड़ जैसी भी,
पहचान मेरी बस इनसे ही |

कभी-कभी ये शब्द मेरे,
मुझसे बेईमानी करते है|
ख़ुद को इधर उधर करके,
कुछ अनचाहा सा गढ़ते है

Wednesday, January 21, 2009

भेज़ा फ्राइ

पंसारी के दूकान मे,पनवारी के पान मे,
मोची के जूते मे, गाय के खूटे मे,
महीने के राशन मे, नेता के भाषण मे,
पंडित के झोली मे, बोली ठिठोली मे,
फिल्म की कहानी मे, रात मच्छरदानी मे,
झूठे अस्वासन मे,अपनो के शासन मे,
परीक्षा के प्रश्नो मे, साधू के वचनो मे,
दिन के उजाले मे, रात के अंधेरे मे,
कविता के छंदों मे, अल्ला के बन्दो मे,
मंदिर के घंटों मे, मस्जिद के चोंगो मे,
जाम के प्याले मे, ख्वाबों ख़यालों मे,
क्रिकेट के छक्कों मे,और बस के धक्कों मे,
तराजू के बट्टो मे, जूओं मे सॅटो मे,
राहों के गड्ढों मे, अइयासी के अड्डों मे,
गोरी के बाहों मे,पीपल की छाँव मे,
जहाँ देखता हूँ मिलावट ही मिलावट है |

रात माँ की लॉरी मे,सपनो की डोरी मे,
बाबुल के कंधो मे, प्रेमी के पंजो मे,
ग़रीबी के चादर मे, अमीरी के खद्दर मे,
कॉलेज के यादों मे, हर एक वादों मे,
बागो मे गलियों मे,फूलों की कलियों मे,
पानी के फब्बरों मे,रंग के गुब्बारों मे,
ज़िंदगी के घेरे मे,शादी के फेरे मे,
थाली के रोटी मे, और जमाल घोटी मे,
सर के हर बॉल मे, चमड़े मे खाल मे,
जहाँ देखता हूँ मिलावट ही मिलावट है |

Saturday, January 17, 2009

किसकी सत्ता......साधू कौन

अभी शुरुआत है, ना जाने कितने तीर छुपा रखे है |
हमने इस चेहरे पर,ना जाने कितने चेहरे लगा रखे है |

वो जो दौरे भगदड़ थी, उसकी बिसात कुछ भी नही,
तुम्हारे वास्ते हर घर मे नया जाल बिछा रखा है |

मुझे तू जनता है, ये भूल है और कुछ भी नही,
हमने कितनो को, इसी भ्रम मे फँसा रखा है |

वो बात और है की हम उनसे अलग दिखाते है,
मगर ये अफवाह भी, खुद हमने उड़ा रखा है |

वो तो सच बोलता था, जो भी किया था उसने,
हमने तो खुद से भी, कई राज़ छुपा रखा है |

तुम जितना बेच सको, बेच लो दुनियाँ "आनंद",
बस चार दिन का सही, ये बाज़ार बचा रखा है |

बच के निकल गये तो, अच्छी है किस्मत "आनंद",
वो भी मुझसा ही था,हमने यहाँ जिसको हटा रखा है |

Friday, January 16, 2009

कोई सरफिरा

कभी मेरे हाथो मे भी हाथ होगा ,
कोई सरफिरा तब मेरे साथ होगा |
अकेला हूँ मैं, राह भी कुछ बड़ी है,
कभी मेरे पीछे भी संसार होगा |

भले राह मे आज काँटे बिछे हो,
कभी तो ये राहें आ मुझसे मिलेंगी |
भले सारी नदियाँ हो उफान पर अब,
कभी तो ये सागर से ही जा मिलेंगी |

भले दुनिया मुझपर नही दाव खेले,
मगर मुझको खुद पर अभी भी यकी है |
भले रात काली भयानक कटी हो,
सूरज की किरण कभी तो दिखेंगी |

भले काले बादल से सूरज ढका हो,
कभी इसकी किरण जमी पर पड़ेंगी |
ये माना की परछाईयाँ खो गयी है,
कभी तो ये कदमो मे मेरे मिलेंगी |

मजबूर हूँ लेकिन टूटा नही हूँ,
अभी पाव मेरे खुद उठ कर चलेंगे |
दबा दो भले कब्र मे आज सच को,
वो छुपा ना सकेंगे मेरी अहमियत को |

Thursday, January 15, 2009

समंदर से कर दुश्मनी........

समंदर से कर दुश्मनी,
मैं किनारों पर सपने सुखाता रहा |
हर लहर यूँ तो दुश्मन घरौंदो की थी,
वो मिटाती रही मैं बनाता रहा |

खिचता था लकीरे किनारों पर मैं,
पर साहिल पर मुझको भरोशा ना था |
ख्वाब अपने भिंगो करके अश्को से मैं,
काल के गाल मे ही छुपाता रहा |

जब बनाने लगा घोंसला प्यार का,
रुख़ हवाओं का भी फिर बदल सा गया |
जो हवाए फिर देती थी दिल को सुकून,
आज वो भी अचानक दहकने लगी |

चाँद पूरा था जो कल तक आकाश मे,
आज वो भी ग्रहण से प्रभावी लगा |
पी कर जिसको भुलाता था संसार को,
आज बोतल वही फिर नशे मे लगी |

समंदर से कर दुश्मनी,
मैं किनारों पर सपने सुखाता रहा |
हर लहर यूँ तो दुश्मन घरौंदो की थी,
वो मिटाती रही मैं बनाता रहा |

Sunday, January 11, 2009

कुछ बंदीसे

दिल के हर अहसास को,
हम काश कह पाते |
उमड़े हुए हर भाव को,
कागज पर लिख पाते ||

बहुत कुछ दिल मे है मेरे,
जो ऐसे कह नही सकता |
बड़ी मुस्किल है बिन बोले भी,
मैं अब रह नही सकता ||

मगर कुछ बंदीसे ऐसी है,
जो मुझे भी रोकती है |
अगर अपनी पर आजाए,
तो सरहद चीज़ क्या है ||

Friday, January 9, 2009

प्रण ये भी उठाकर चलिए...

जो भी मिल जाए उसे दोस्त बनाते चलिए,
फ़िज़ा मे अमन का एक फूल खिलाते चलिए |

खिलखिला के हो रुख्सत जो मिले अब हमसे,
अपने कंधो को आँसुओ से भिगोते रहिए |

यहाँ बिखरी हो किल्कारियाँ मोती की तरह,
पड़े जो राह मे उसे भी गोद उठाते चलिए |

हर घर मे उजाला हो फिर मकसद अपना,
अपने घर का एक दिया बाजू मे जलाते रहिए |

न खाली पेट सोए यार किसी का बचपन,
अपनी थाली की एक रोटी ही बाँटते चलिए |

ना आए आँच कभी, देश के उपर कोई,
इस नये वर्ष मे प्रण ये भी उठाकर चलिए |

हो नये वर्ष मे चारो तरफ खुशियाँ फैली,
अपनी रचनाओ से "आनंद" लूटाते रहिए |

Wednesday, January 7, 2009

हादसा.....

जब हृदय कि बात कोई,
बिन कहे सुनने लगे |
और सारे रास्ते,
खुद आप से जुड़ने लगे |
जब हवा खुद रुख़ बदल कर,
आप संग चलने लगे |
और सारे फूल कलियाँ,
खुद राह मे बिछने लगे |

तुम चलो चाहे जहाँ,
और कारवाँ बनने लगे |
तेरी कही हर बात जब,
सारा जहाँ सुनने लगे |
जब समंदर खुद-ब-खुद,
देने लगे तुम्हे रास्ता,
बच के रहना खुद से भी,
कही हो ना जाए "हादसा"|

Tuesday, January 6, 2009

कब सफल होगी कूटनीति ?

आख़िर कब तक हम देश हित को दूर रखकर इसी प्रकार से सम्मेलन करते रहेंगे | एक महीने से हम उसे सबूत देने मे जुटे हुए है जो खुद आतंकवाद का सरजमीन तैयार करता है | अब तो ये सोच के शर्म आने लगी है कि अपने देश कि बागडोर कैसे नपुंसको के हाथ मे है जो अपने हितो के लिए भी गैर के दरवाजे पर मत्था टेक रहे है | और एक पड़ोसी देश जिसकी खुद मे कुछ औकात नही है वो हमे जबाबी करवाई कि धमकी पर धमकी दिए जा रहा है |आख़िर ये कूटनीति कब तक सफल होगी ?

है राजनीति का ये बिस्तर,
और महल खड़ा है मुद्दों का |
पेट नही भरता मेरा अब,
इस कूटनीति के दावत से ||

आतंकवाद के नाम पर अब,
जितनी चाहो रोटी सेको |
यहाँ गली ना दाल अगर तो,
फिर दुनियाँ मे मत्था टेको ||

अपनी ग़लती उसके सर पर,
वो और किसी पर थोपेगा |
यही चलन है राजनीति का,
जिसने जाना, शुख भोगेगा ||

औकात नही जिसकी खुद मे,
वो भी हमे राह बताएगा |
और चार दीनो कि बात है ये,
फिर सब वैसा हो जाएगा ||

कल का मुद्दा आज अहम है,
आज कि कल फिर देखेंगे |
आतंकवाद कि पृष्ठ भूमि मे,
हम खुद अपना घर फूंकेंगे ||

अपने घर कि रक्षा को,
कब तक घुटनो पर रेंगोगे |
अपनी बात मनाने को,
अब किस दर मत्था टेकोगे ||

Thursday, January 1, 2009

कैसे मनाया नया साल ||

उसने दस्तक दिया मेरे दर पर बहुत ,
फोने कर के मुझे फिर बुलाता रहा ||
पी के सोया था घर मे जो उस रात को ,
बॉस दो रात तक फिर जगाता रहा ||

फ्री कि मुझको मिली और मैं पीता गया,
जाने कब पाँव फिर लड़खड़ाने लगा ||
दोष मेरा ना था, पर मैं बदनाम था,
हर कोई मुझपर तोहमत लगाता गया ||

मेरे चेहरे का कुछ और ही हाल था,
दाँत थे हिल रहे, जबड़ा बेहाल था ||
देखकर शर्मा गया आईना भी मुझे ,
अपना परिचय जब उससे कराने लगा ||

पेट मे थी कसक, पैर बेहाल था,
पीठ पर दर्द का आया भूचाल था ||
भूलकर दर्द को घर से निकला ही था,
शोर आने लगी वो गया साल था ||

उसने दस्तक दिया मेरे दर पर बहुत ,
फोने कर के मुझे फिर बुलाता रहा ||
पी के सोया था घर मे जो उस रात को ,
बॉस दो रात तक फिर जगाता रहा ||