Monday, December 14, 2009

देवदास सा मैं पागल

न मदिरा कि प्यास मुझे,
ना काम बिना मदिरा चलता |
न देवदास सा मैं पागल  ,
न बिन पारो ही मन लगता |


ग्वालाये रास नहीं आती,
नाही राधा ही मन भाती |
न कोई स्वर्ग कि चाह मुझे,
न बिना मेनका आँख लगे |


व्यथा मेरी सुनकर अक्सर,
संसार ये कहता है हंस कर |
राम राम कि बेला में,
देखो बैठा है फिर पीकर  |

Wednesday, December 2, 2009

अब प्रयोगों से ही पैदा, हो रहा है आदमी

आदमी औरत का संगम,
दशकों  पुरानी बात है |
अब प्रयोगों से भी,
पैदा हो रहा है आदमी |

जोडियाँ बनती हैं ऊपर,
वर्षों पुरानी बात है |
आज कल तो मर रहा है,
आदमी पर आदमी |

मूर्खता कह लो इसे,
या प्रेम कि पराकास्ठा |
भौतिक सुखों कि चाह ले,
दुनियाँ से लड़ता आदमी |

मन कि आज़ादी कहो या,
 मानसिक दुर्भावना |
भेद लिंगो का मिटा,
कुदरत से लड़ता आदमी |

तितलियाँ भंवरे यहाँ,
अपने में ही मद मस्त है |
जाने  ये किस मोड़ पर,
अब बढ़ रहा है आदमी |

इसकी नक़ल उसकी नक़ल,
हर रोज़ करता आदमी |
सभ्यता को ताख पर रख,
रोज़ मरता आदमी |

जो जरूरी हो उसे,
 दिल खोल के अपना सके   |
इस ज़रा सी बात से,
कीचड़ में सनता आदमी |

रेत पर पानी का दरिया, 
है ये भौतिकवाद बस |
भूल कर अपनी हकीक़त,
दर-दर भटकता आदमी |

तितलियाँ भंवरे यहाँ,
अपने में ही मद मस्त है |
अब प्रयोगों से ही पैदा,
हो रहा है आदमी  |