Friday, March 26, 2010

भीड़ जो अच्छी लगी, मैं यार उसमे खो लिया

मन में झांके हर किसी के,
यार ये मुमकिन ना था |
तन से जो सुन्दर लगा,
हम यार उसके हो लिए |

एक घडी में हर किसी को,
जान ले मुमकिन ना था |
एक नजर में जो जँचा'
हम यार उसके हो लिए |

वो जो प्यार का  था रास्ता,
मेरे लिए तो  नया ही था |
चले डगमगा के जिधर कदम
मैं उसी लगी में निकल गया |

संग कारवां का साथ हो,
ये चाह तो बचपन से थी |
फिर भीड़ जो अच्छी लगी,
मैं यार उसमे खो लिया |

6 comments:

  1. संग कारवां का साथ हो,
    ये चाह तो बचपन से थी |
    फिर भीड़ जो अच्छी लगी,
    मैं यार उसमे खो लिया |
    शानदार रचना

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  2. बहुत बढ़िया रचना!

    बधाई!!

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  3. wastav me kisi ke chehre se uski asliyat ya man ki khoobsoorati ko nahi dekha ja sakta aur baher ki sunderta akser door ke dhool hoti hai.
    bahut hi achhi rachna hai lage raho dost

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