Wednesday, January 27, 2010

बाँट लो अपना घरौंदा




फायदा क्या साथ रहने में,
यहाँ फिर बे-सबब |
जब लगे बर्तन खनकने,
यार हो जाओ अलग |
जब सिर्फ अपनी बात ही,
सबको सही लगने लगे|
बाँट लो अपना घरौंदा,
ताकि हंस कर मिल सके |
बात एक दूजे कि जब,
कान में चुभने लगे,
मौन ब्रत धर  लो वहां,
ताकि सुकून से रह सको|
जब हुआ हर काम ,
अपना ही किया लगने लगे |
और रिश्ते खुद पर तुझको,
बोझ से लगने लगे |
जब लगे है फायदा, 
दूर रहने में तुम्हे |
तब  तोड़ दो एक घर कि ,
फिर  दो घर ख़ुशी से रह सके | 

Friday, January 8, 2010

ये गहरी खाइयाँ क्यूँ है |

ख़ुशी के समन्दर में,
ये गम के बुलबुले क्यूँ है |
अपनों के इस  भीड़ में,
हम यहाँ तन्हा क्यूँ है|


यूँ तो सूरज रोज आता है,
 मेरे दर पर हर सुबह| 
फिर भी मेरे दर पर,
 ये घोर अँधेरा क्यूँ है |


साथ चलने से यूँ  तो,
मिटा करती थी दूरियां | 
फिर ये हम दम से,
ये इतना फांसला क्यूँ है |


मिलने कि है आरजू,
कई मुद्दत से सनम |
दिलों के बिच में अब तक,
ये गहरी खाइयाँ क्यूँ है |