Sunday, April 25, 2010

कुछ अधूरे पन्ने

1: 
चैन से सोते थे हम,
जब घर में दरवाज़ा ना था |
जब से पहरेदार रखे,
नींद भी आती नहीं |

2: 


देख  कर  उनको  कदम ,
रुकने  लगें  क्या बात  है |
सोचने  को  हैं  विवश,
क्या  यार  तुममे  खास  है |
दर्जनों गलियां  बदल  ली,
यार  फिर भी  क्या  मिला |..
हर  गली  हर  मोड़  पर,
बस  तेरा  ही  आभास   है |

3:
दिल कि बातें अब जुबां पर ,
उस तरह आती नहीं |
अनगिनत चहरे बदल लेता हूँ,
मैं हर मोड़ पर |
पहले दिल कि बात कागज़ पर,
छपा करती थी सीधे |
अब तो सीधे राह  से,
जाने कब गुजरे कलम |

४:
राह पर मेरे लिए,
कुछ फूल कुछ काटें भी थे |
आदमी के भीड़ में,
कुछ शोर सन्नाटे भी थे |
बात किस्मत कि ना थी,
थी बात रिश्तों कि यहाँ |
कुछ मिले काटें अगर,
कुछ हमने भी बांटे तो थे |
संग मेरे जो घटा,
दिल खोल के अपना लिया |
राह में गर कुछ लुटा ,
कुछ हमने भी नोचें ही थे |

Saturday, April 17, 2010

मैं भुला नाम अपना भी


किताबों को लगा दिल से,
वो पहली बार जब आई |
मैं भुला नाम अपना भी,
चली कुछ ऐसी पुरवाई |

वो चलना यार झुक कर के,
हवा के वेग के जैसा |
मैं भुला नाम अपना भी,
वो जब भी सामने आई |

बहुत चंचल हुआ करता था,
मैं भी उन दिनों में पर |
नहीं कुछ बोल पाया मैं,
वो जब भी सामने आई |

मैं यादों के समंदर में,
लगा गोते हुआ विजयी |
मगर वो दिल कि बातों को,
कहाँ अब भी समझ पाई |

सुना है अब तलक मुझसा,
एक साथी ढूंढती है वो |
जो उसके साथ था हरदम,
उसे वो ढूंढ ना पाई |

उसे नफ़रत थी गजलों से,
मुझे कुछ लोग कहतें थे |
हर ग़ज़ल नाम थी उसके,
जिसे वो पढ़ नहीं पाई |

किताबों को लगा दिल से,
वो पहली बार जब आई |
मैं भुला नाम अपना भी,
चली कुछ ऐसी पुरवाई |

Saturday, April 3, 2010

क्या धाकुं क्या तोपूँ

किसी कि भावना को आहत करने या किसी को उपदेश देने का मेरा कोई इरादा नहीं है |ये पंक्तियाँ आज के परिवेश में फैशन कि वो तस्वीर दिखाना चाहती है जिससे हम मुह तो फेर सकते है पर नकार नहीं सकते. अगर किसी समूह या समुदाय को मेरी बातें ठीक ना लगे तो उन्हें अपना विरोध दर्ज करने का पूरा अधिकार है | कृपया कर इसे फैशन विरोधी या समुदाय विरोधी ना समझे और अगर किसी कि भावना को ढेस पहुंचे तो क्षमा  चाहूँगा |

कलयुग में दुष्यासन आके,
ख़ुद अपने ऊपर शर्माए |
छलिया कृष्ण कहाँ बैठा है,
क्यूँ न चीर बढाये |
चीर नही है तन पर कोई,
नीर न आँख में बाकी,
छुपा कहाँ है आज कृष्ण, 
अब बाँध के हाँथ में राखी |
कृष्ण :-
एक नही है आज द्रौपदी, 
किसकी लाज मैं राखु |
बिन देखे दिखता है सब कुछ, 
क्या धाकुं   क्या तोपूँ 
बैठे यही सोचता हूँ कि,
क्या आऊँ  कलयुग में,
जहाँ लाज को लाज नही आती है,
आज यहाँ इस युग में |
ये कलियुग ऐसा पहिया है,
चक्र वही दोहराए |
मानव आदि  मानव से मानव बन,
फ़िर अदि मानव बन जाए|
कलयुग में दुष्यासन आके,
ख़ुद अपने ऊपर शर्माए |
छलिया कृष्ण कहाँ बैठा है,
क्यूँ न चीर बढाये |