रिश्तों कि डोरी पकडे मैं, कुछ और दूर चलना चाहूँ,
लुक्का छुप्पी कर उलझन से, बचपन में जीना चाहूँ |
छूट गया जो वर्षों पहले, बचपन के चौराहों पर तब,
उसी पुराने सकरे पग पर, मैं नंगे पग चलना चाहूँ |
माना थका नहीं हूँ अब भी मैं, हंसी, ठिठोली, बोली से पर,
लुक्का छुप्पी कर उलझन से, बचपन में जीना चाहूँ |
छूट गया जो वर्षों पहले, बचपन के चौराहों पर तब,
उसी पुराने सकरे पग पर, मैं नंगे पग चलना चाहूँ |
माना थका नहीं हूँ अब भी मैं, हंसी, ठिठोली, बोली से पर,
अम्मा कि आँचल में छुप कर, फिर बच्चों सा रोना चाहूँ |