Sunday, November 9, 2014

मेरा गुल्लख

जब दर्द छुपा न पाया तब,
बरबस मेरा गुल्लख बोल पड़ा ।
दम घुटता है अंधियारे में,
ये कहते हिम्मत छोड़ गया ।

जो व्यथा सुनाई गुल्लख ने,
सुनते ही आँखें भर आई ।
जो चिंतित है मेरी खातिर,
क्यूँ मिली उसे फिर तनहाई ।

गुल्लख.....
क्यों छुपा के कोने रख्खा है ।
मुझको छोडो अब जाने दो।
महंगाई की मार बहुत है,
अब यूँ ना मुझको ताने दो ।

छुटकी बिटिया चिल्लर के संग,
अपने सब सपने रखती है ।
जोभी दिल में होता है,
दिल खोल, मुझी से कहती है ।

पिन, चाकू, छुरी चम्मच,
हर मार सही,  बिन बोले ही।
दुनियां की बात नहीं आनंद,
सब जख्म मिलें हैं अपने ही ।

चाहे खाएँ हो लाख जख्म,
पर खुला नहीं मैं गैरों से।
जब तक हिम्मत थी मुझमे,
मैं डटा रहा हर पहरों में ।

बिटिया की इच्छाओं से,
अब बरबस ही डर लगता है।
जो सोच रही है मन में ही,
मेरे संग मेरा गुल्लख रक्खा है ।

मैं कैसे कहूँ, उसे की मैं,
एक आदत हूँ, उपचार नहीं ।
मैं संरक्षण सिखलाता हूँ,
मैं कोई कोषागार नहीं ।

मैं तुम्हे सिखा सकता हूँ,
कैसे संचित करें धरोहर को,
पर तुम्हे बचा न पाउँगा,
मैं कोई, गड़ा भण्डार नहीं।

जब दर्द छुपा न पाया तब,
बरबस मेरा गुल्लख बोल पड़ा ।
अब दम घुटता, अंधियारे में,
ये कहते हिम्मत छोड़ गया ।