अंतर पाप पूण्य का जानु,
ख़ुद की गलती भी सब मानू,
निःस्वार्थ करूँ निंदा जन की,
और अनचाहा सा सुख मानु ।
जो बात गलत लगती है,
वो भी हरदम करता रहता हूँ ।
बड़बोला पन, और चिंतित मन,
मैं लेकर फिरता रहता हूँ,
सब दोष डालकर दूजों पर,
बचने की कोशिश करता हूँ,
मैं खग बन, मुदे आँख यहाँ,
जीवन धारा में बहता हूँ ।
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