Friday, August 23, 2019

खुद के रँग में रँग जाने दो

मुझको गिरगिट बन जाने दो,
खुद के रँग में रँग जाने दो |
मुझे जंजीरों से बाँध गुरू,
मुझको खुद सा बन जाने दो ||

मुझको गिरगिट बन जाने दो,
खुद के रँग में रँग जाने दो | |

जो रँग चढ़े मुझ पर तेरा,
वो ही अंतिम रँग हो मेरा |
दे चरणों में स्थान प्रभु,
मुझको पावन हो जाने दो ||

मुझको गिरगिट बन जाने दो,
खुद के रँग में रँग जाने दो | |

मुझे पटको, पीटो, तोड़ दो तुम,
पावन  धारा से जोड़ दो तुम |
गर अर्थ ना  दूँ इस जीवन को,
मेरी हड्डी पसली तोड़ दो तुम ||

मुझको गिरगिट बन जाने दो,
खुद के रँग में रँग जाने दो | |

मैं हाड माँस का पुतला हूँ,
अधजल गगरी सा उथला हूँ |
मुझे उलट पुलट कूटो जमकर,
पर मानो  हद मुझको भर कर ||

मुझको गिरगिट बन जाने दो,
खुद के रँग में रँग जाने दो |  

Thursday, February 21, 2019

पाक केसरी रंग दो

@PMOIndia

वो चुप थें, तुम बड बोले हो,
तुम किंचिद नहीं ही भोले हो।,
है दम तो उठ कर वार करो,
क्यूँ अब तक दुबकर बैठो हो?

तुम गर पाकी का सर दोगे,
और पाक केसरी रंग दोगे।
तुम्हें पाँच नहीं फिर दस देंगे।
तुमको बहुमत से भर देंगे ।।

Tuesday, February 12, 2019

अंतर पाप पूण्य का जानु

अंतर पाप पूण्य का जानु, ख़ुद की गलती भी सब मानू, निःस्वार्थ करूँ निंदा जन की, और अनचाहा सा सुख मानु । जो बात गलत लगती है, वो भी हरदम करता रहता हूँ । बड़बोला पन, और चिंतित मन, मैं लेकर फिरता रहता हूँ, सब दोष डालकर दूजों पर, बचने की कोशिश करता हूँ, मैं खग बन, मुदे आँख यहाँ, जीवन धारा में बहता हूँ ।

Monday, December 11, 2017

ईमान बचाना भारी था।

जब दो संस्थान किसी कारण से आपस में साँझेदारी करें और कोई एक संस्थान का पूर्ण विलय हो जाए, तब अगर दोनों संसथान एक साथ, एक छत के नीचे, काम करने के लिए प्रेरित हों, उस समय पुरुष कर्मियों के दिल में क्या क्या हरकत होती है, उसकी एक बानगी 😊😊....

ऐसा नही की लल्ला, हर एक तीर तुम्हीं ने झेलें हैं ।
जब से आए हैं इस दर, हम भी मौजों से खेले हैं ।।

जब से महफ़िल छोड़ के हम, इस वीराने में आए है ।
कैसे तुम्हें बतायें कि, हम क्या क्या सहते आएँ हैं ।।

इतने जलवे देखें हमने, दिल जान बचाना भारी था ।
लटके झटके झेल झेल, ईमान बचाना भारी था  ।।

कुछ बल खा के, दिल लूट गयीं, कुछ क़ातिल नैना मार गयीं ।
कुछ घुंघराले लट वाली दिल में, सीधे छुरा मार गयीं ।।

विगत वर्ष कुछ इसी समय, जब यौवन, घट से छलका था।
ऐसा समय भी आया था, जब संस्कार संकट में था ।।

कैसे तुम्हें बताऊँ कितना, दर्द मिला था जीने में ।
कई ख़्वाब आँखों से होकर, दफ़्न हुए थें सिने में ।।

Thursday, December 7, 2017

ख़ून बहाने निकलें हैं ।

जिसने सारा संसार रचा,
कुछ उसे बचाने निकलें है।
साफ़ हवा में, बारूदों की,
गंध मिलाने निकलें है ।

धर्म क़ौम के नाम पे कुछ,
फिर शीश कटाने निकले है।
अपनी सनक मिटाने को,
कुछ ख़ून बहाने निकलें है ।

नाम हमारा लेकर कुछ,
मनमानी करने निकलें है।
राजनीति सध सके स्वतः,
सो जग भरमाने निकलें हैं ।

जिसने सारा संसार रचा,
कुछ उसे बचाने निकलें है।
साफ़ हवा में, बारूदों की,
गंध मिलाने निकलें है ।

Tuesday, October 31, 2017

तन का आकर्षण !

तन का आकर्षण है जब तक,
मन का मान किसे रहता है ।
पाप पुण्य का ध्यान किसे फिर,
कहाँ कोई निश्छल रहता है ।

अपने को तज, ग़ैर की चिंता,
दिल तेरा अक्सर करता है,
क्षण-भंगुर यौवन का पीछा,
क्यूँ ये व्याकुल मन करता है ।


Monday, October 16, 2017

जीवन साथी...

जैसे जैसे दिन एक बीता,
तुम वैसे वैसे निखरी हो ।
एक जन्म का साथ नही,
तुम जैसे, जन्मों से मेरी हो ।

तुम अपना अस्तित्व मिटा के,
मेरा शुख़ दुःख बाँट रही हो ।
मेरे हिस्से के काँटे भी,
तुम आँचल से ढाँक रही हो ।

अपने घर को छोड़ के जबसे,
तुम मेरे घर आयी हो ।
उस दिन से तुम अपनी ख़ुशियाँ,
मेरे घर ही बाँट रही हो ।

है अपनी चिन्ता कहाँ तुम्हें ,
बस अपनो की चिंता करती हो।
जिसको बरसों ढूँढ रहा था ,
तुम बिलकुल वो ही लड़की हो ।

Wednesday, October 11, 2017

पूराने ख़्वाब को, फेकूँ मैं कहाँ ?


तेरी हर बात तो, हर बार बदल जाती है,
मैं तेरे बात पर, कैसे यक़ीं करूँ ये बता ।।

फिर एक बार नए ख़्वाब, लेके आए हो,
पूराने ख़्वाब को, फेकूँ मैं कहाँ ये तो बता ।।

तेरे वादे अभी भी दफ़्न हैं, तकिए के तले,
मैं राज खोल दूँ, तुझको हो कोई डर तो बता ।।

मेरी आवाज़ को, तेरा शोर दबा दे शायद,
तू थोड़ा सब्र से, मेरी बात सुन सके तो बता ।।

मैं जानता हूँ, शहर भर में है बस तेरे चर्चे,
तू सबसे ऊब कर, एकांत में चल ले तो बता ।।


जाने क्यूँ अच्चा लगा

थक चुका था साफ़ सुथरे रास्तों पर चलते चलते,
तंग गलियों से गुजर कर घूमना अच्छा लगा।

धुल धक्कड़ से निकलता था, हमेशा बच  बचाके ,
आज कीचड़ में लिपट कर जाने क्यों अच्छा लगा ।

झूठ के पिंजरे में , बैठा था मैं अब तक छुप छुपा के ,
आज सच के आसमां में, फिर तैरना अच्छा लगा ।

थक चूका था, स्वान रच रच कर, नए चेहरे लगा कर,
आज माँ से, फिर लिपट कर, जाने क्यों अच्छा लगा ।

थक चुका था साफ़ सुथरे रास्तों पर चलते चलते,
तंग गलियों से गुजर कर घूमना अच्छा लगा।

Friday, October 6, 2017

क्यूँ फिर रहा है ठगा-ठगा सा ..

किसी की बातों पे रंज क्यूँ है,
किसी के करतब से क्यूँ हतासा ।
करम सभी के हैं उसके आगे,
काल का पहिया यही बताता ।।

जो घाव देके उछल रहे हैं ,
उनका भी कल बने तमाशा ।
सही ग़लत में फँसा ही क्यूँ है,
क्यूँ फिर रहा है ठगा-ठगा सा ।।