Monday, December 17, 2007

कुछ खो जाने का ग़म

अपनी राहों से उन्हें बच के निकलते देखा ,
खुली आँखों से हमने चांद को ढलते देखा

नही थी बात कोई भी जो दुख दे दिल को ,
छोटी सी बात को फिर तूल पकड़ते देखा


शरीर जिसका हवाओ से सिहर उठता था ,
जमीने दफन मे उनको फिर टहलते देखा
हमारे शहर मे थी लाज कि मूरत कल तक,
सरे बाज़ार मे उसको ही फिर बिकते देखा

पढा करता था जिसके नाम के हरदम सदके,
उन्ही को नाम पर लानत मेरी पढ़ते देखा
तमाम करके कोशिशें जिसे हंसा न सके ,
उन्ही को कब्र पर आते हुए हँसता देखा

सती थी यार जो कल तक और रुप सीता थी,
उसी को साथ रावण के फिर विचरते देखा
सजा करती थी कल तक थाल अब तक पूजा में,
आनंद खून से उसको यहाँ फिर लिपटा देखा

Tuesday, October 2, 2007

हो हर सपनो मे प्यार भरा, सपनो मे भ्रष्टाचार ना हो|

कुछ सपने ओढूंगा मैं, कुछ सपनो पर सो जाऊंगा
जब तक सपने साकार ना हो, आँखों को ख़ूब थकाऊँगा

सपनो का शीश महल होगा, जिसमे आशा का पर होगा
शायद पृथ्वी के आँचल मे, अपना एक सुंदर कल होगा

सपनो की परिभाषा को, सपनो से यहाँ बदलना है
काँच के सपनो को हिम्मत कर, फ़ौलादों पर मढ़ना है

हो सपनो का परिणाम यहाँ,सपनो का फिर परिमाण ना हो
हो जन गण मन की गूँज जहाँ, वहाँ जन के मन की हार ना हो

हो हर सपनो मे प्यार भरा, सपनो मे भ्रष्टाचार ना हो
हों अपने ऐसे सपने कि, फिर आज़ादी बेकार ना हो

"यादों की गागऱ से"

मेरे यादों की गागऱ से मैं, रोज़ समंदर भरता हूँ
महफिल मे तन्हाई मे बस उसकी बाते करता हूँ


वो यार समंदर का घट है, मैं हर दिन प्यासा मरता हूँ
वो है गंगा जल की धारा, और मैं गलियों मे बहता हूँ


वो यार आरती पूजा की, मैं बस कपूर सा जलता हूँ
वो भूल चुकी है नाम मेरा , मैं नाम उसी का रट्ता हूँ

वों यार सुराही का घट है, मैं राही प्यासा बैठा हूँ
वो अमृत की बूँद सद्रिश, मैं यार गरल के जैसा हूँ

वो यार समाहित है मुझमे, मैं उसको खोजा करता हूँ
वो भूल चुकी है नाम मेरा, मैं नाम उसी का रट्ता हूँ

वों यार सति सीता जैसी , मैं इन्द्र सा हट कर बैठा हूँ
वो गीता है महाभारत की, मैं पार्थ सा ज़िद्द कर बैठा हूँ

उसे याद नही बीता कुछ भी, पर मैं अतीत संघ बैठा हूँ
वो दुनियाँ का नूतन भविष्य, मैं तो अतीत संघ लिपटा हूँ

उसको नफ़रत है ग़ज़लों से, पर मैं ग़ज़लों मे जीता हूँ
वो भूल चुकी है नाम मेरा, मैं नाम उसी का रट्ता हूँ

प्यार या फिर धोखा

जो शब्दों मे बँध जाए ,वो प्यार नही है धोखा है
यहाँ नही शिव सा कोई, जो गरल कंठ मे रोका हो

जो दिखता है प्यार सद्रिश,वो मिराज है धोखा है
जो यार सूखा दे सागर को, वो राम कहाँ पर देखा है

आँखों की भाषा पढ़ने मे, आँखे भी धोखा खाती है
कहाँ बचा वो सन्यासी, जो मन की भाषा पढ़ता हो

यार पूराने वस्त्रो के संघ, साथी यहाँ बदलता है
कहाँ सती सीता बाक़ी अब, जो अग्नि संग जलती हो

हर दिल मे जवाला यौवन की,प्यार उसी संघ जलता है
कहाँ बचा वो देव दाश, जो यार दिए सम जलता हो

Wednesday, September 26, 2007

"शब्दों का हेर फेर" एक दर्द

दर्द नही बाटूँ.गा अपना, जिससे दुनियाँ है भरी हुई
मैं बाटूँ दिल का टुकड़ा , दिखे हसीना मुझे कहीं

राम नही बन पाया तो क्या, श्याम बनाऊगा ख़ुद को
सीता जब बची नही जाग मे, राधा संग रास रचाऊगा

नही स्वर्ग की चाह मुझे , धरती पर स्वर्ग बसाऊंगा
और मेनका संग बैठा मैं, प्यार की धूनी रमाऊँगा

कैट रहेगी शाम साथ में, सुस संग रात बिताऊँगा
तनु श्री होगी द्वार पाल , जब यार कहीं मैं जाऊंगा

उसकी पत्नी अपनी होगी, जो यार कर्ण सा दानी होगा
उसका बन जाऊंगा भाई मैं , जो यार दौपड़ी स्वामी होगा

ये था सबदों का हेर फेर , जो सोचोगे दिख जाएगा
गर साफ़ हुआ दिल तो अच्छा, गर पाप हुआ जल जाएगा

गर मेरे दुशशाहस से, कुच्छ सिख लिया तो अच्छा है
जिसने ना देखा मरम है क्या, वो यार अभी भी बच्चा है

"आधुनिक वातावरण"

जो जितना त्याग करे वस्त्रों का,
वो उतनी अच्छी मॉडेल है
जिससे तन ढकता हो कम,
वही आज कल फ़ैशन है

द्वपार मे आकर दुष्यासान,
फ़र्ज़ी मे बदनाम हुआ
सको आना था कलियुग मे,
जहाँ वस्त्र का केवल नाम बचा

है द्रौपदि का गोल यहाँ,
उर्मिला सी कम दिखती हैं
और कागज़ी नोटों पर,
हर रोज़ मेनका बिकती है

जब स्तर गिरता है कपड़ों का,
तब स्टेटस बढ़ता है
क्यूं गिरे ना फिर स्तर ज़ीवन का,
जहाँ यार फिगर बस दिखता हो

चाहे ऑफीस का द्वार हो कोई,
या टटपुजीया अख़बार हो कोई
यार कौड़ी यों की भावो में,
शर्म यहाँ पर बिकता है

प्राणी अलग नही तुमसे मैं ,
यार तुम्हारे जैसा ही हूँ
पर यार ख़टकती हैं कुछ बातें,
जो मैं ख़ुद से कहता हूँ

मैं छमा प्रर्थि फ़ैशन का,
गर भूल हुई हो कुछ मुझसे
और छहमा उस नारी जाती से,
श्रिस्टी शुरू हुई जिससे

"समय चक्र"

एक सपना देखा था मैने,एक सपना ख़ुद चल आया था,
एक टूट गया जब जागा  मैं, दूजे को ख़ुद ठुकराया था |
माना की दौलत साथ न थी ,पर हम राजा सम दिखते थे,
थी ख़ुशियाँ क़दमो में अपने, और पाव हवा मे चलते थे |
यार समय का चक्र जहाँ , कुछ धीरे-धीरे चलता था,
जहाँ बच्चा माँ की आँचल में, निर्भय होकर सोता था |
जब यार भयानक सपने भी, गोद मे आ खो जाते थे,
गरज बरस अस्कों  के बदल,  आंचल मे जम जाते थे |
जब काम नही करने का फल, हमको हाथो पर दिखता था,
जब यार किताबों के  पन्नो पर, नाम किसी का लिखता था
यार खुली आँखों मे जब , कुछ ख्वाब नये से सजते थे,
और नये से चित्र कई जब, अपने  बटुए मे  सजते  थे |
वो यार बचा कर जब नज़रे, हम राह किसी का तकते थे
एक दिल के लाखो टुकड़े कर, फिर सबको बाँटा करते थे  |
कुछ के दाँतो के कायल थे,  कुछ के चेहरे पर मरते थे,
कुछ चलती थी बल खा के, हम जिनको घुरा करते थे  |
हर गलियों मे चौबरों पर, फिर प्यार हमे हो जाता था,
जब भी नज़रे टकराई तो, दिल का टुकड़ा खो जाता था  |
पर यार शाम घर आने पर, सीधा बच्चा बन जाता था,
थी आँचल मे इतनी ख़ुशिया, कुछ याद नही फिर आता था |
अब अस्कों  की सागर मे, यादों की नाव चलाता  हू,
फिर रिस्तों की डोरी संग , आप लिपटता जाता हूँ |
कुछ पाने का अहम्  है तो, कुछ खो जाने का ग़म भी है,
कुछ यादें मीठी सी दिल में, कुछ बात से आँखे नम  भी है |

Tuesday, September 11, 2007

ख़ुद पत्थर पऱ मारेँ पैर,ये काम नहीं है मर्दों का

ख़ुद पत्थर पऱ मारेँ पैर,
ये काम नहीं है मर्दों का
मेनका ना बने अगर कोई,
तो विशवामित्र नही जनता

तन पऱ वस्त्र नही पूरे,
आँखों से खाख उतारेंगे
हो नीर बची गर आँखों मे,
तो हम भी ख़ुद के रावन को मरेंगे

गर सीता को छू लेने से ,
रावन का अंत सूनिस्चित था
फिर तो सीता को ह्रने में ,
सीता की सामिल थी इच्छा

हालात नही पैदा होंगे,
तो हर नर मे हनुमान होंगे
जहाँ एक अफ़सरा जन्मेग़ी,
दस इंद्रा वहाँ पैदा होंगे

ग़ज़लों से मोह नही किसको

अपनी यादों के गागऱ से ,
मैं रोज़ समंदर भरता हूँ
वो भूल चुकी है नाम मेरा,
मैं नाम उसी का रटता हूँ

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था हर बातों मे अर्थ छुपा,
सारी बातें तो व्यर्थ ना थी
था अंधेरे का कुच्छ मतलब,
सारी रातें तो व्यर्थ ना थी


सायद मेरे कहने का ढंग ,
रास ना आता हो उनको
जहाँ रोज़ महफिलें सजती हों,
ग़ज़लों से मोह नही किसको

Monday, June 4, 2007

ना शाख बची बाक़ी कोई,


ना शाख बची बाक़ी कोई,सब शखा पुराने छूट गाएं |
अब तो रोटी के चक्कर में,सब धमा चौकड़ी भूल गाएं |

दिल मे यादें कुछ धूधली सी,कुछ काली सी कुछ उजली सी |
वो यार का ग़ुस्सा मोटा सा ,वो जान की मुस्की दुबली सी |

अब तो हऱ चौबारे पऱ, हऱ नल पऱ फ़ौवारे पऱ |
एक याद बची है धुंधली सी,कुछ काली सी कुछ उजली सी |

ग़ुस्से से गाल फूला लेना, फिर अगले पल मुस्का देना |
मेरे बारे में कहते कहते, फिर उसका आँख चुरा लेना |

वो मुझसे लड़ना रोज़ाना, फिर एकदम से शर्मा जाना |
वो बादल से बिजली गिरना, और उसका घबरा जाना |

मुझसे लड़ना मेरी खातिर, फिर घंटो तक चुप हो जाना |
मेरे पीछे मेरी खातिर, उसका दुनियाँ से लड़ जाना |

ना शाख बची बाक़ी कोई, सब शखा पुराने छूट गये |
अब तो रोटी के चक्कर में, सब धमा चौकड़ी भूल गये |


Thursday, May 31, 2007

ना जाने क्यूं दिल जलता है

तन शीतल है यार मगर, ना जाने क्यूं दिल जलता है |
हूँ रुका हुआ मैं वरसों से, दिल मे हरदम कुछ चलता है |

रास नही कुछ भी आता, ना सूनापन मुझको भाता |
आँखों मे है कुछ धुंधला सा, जो स्पस्ट नही होता |

मैं कुछ भी भूल नही पाता, फिर कुछ भी याद नही आता |
कोई चेहरा अन्जाना सा, मैं जिसको भूल नही पाता |

ग्वालाएँ रास नही आए, ना राधा ही मन को भाए |
कृष्ण नही बनना चाहूं, ना रास बिना ये दिल माने |

आँखों में सागर मेरे पर, कंठ मेरे अब भी प्यासे |
ना कोई स्वर्ग की चाह मुझे, ना बीना मेनका आँख लगे |

ना मदिरा की प्यास मुझे, ना काम बीना मदिरा चलता |
ना देवदाश सा मैं पागल, ना बीन पारो ही मन लगता |

व्यथा मेरी सुन कर अक्सर, संसार ये कहता है हँस कर |
राम -राम की बेला मे, देखो बैठा है फिर पी कर |

टूटे हुए से माँगना......

है बहुत आसान यहाँ, टूटे हुए से माँगना |
पर नही आसान, क्यूं टूटा हमारा जानना |

कौन है सूरज यहाँ, ये जानते है लोग सब |
पर नही आसान,क्यूं जलता है वो ये जानना |

रोशनी दीपक से है, ये जानना आसान है |
दर्द परवानो का क्या, मुस्किल है यारो जानना |

है अमर इतिहास में, अब भी करोणो सूरमा |
है नही आसान अब, उनके क़ब्र को पहचानना |

है बहुत आसान, यहाँ टूटे हुए से माँगना |
पर नही आसान, क्यूं टूटा हमारा जानना |

Friday, May 25, 2007

तनहाई

जब भी ख़ुद को तन्हा पाया,
फिर सोचा कुछ यार लिखूं |
लिख दूं काग़ज़ पर बात सभी,
या सब बातों का सार लिखूं |


पर क्या दिल की सारी बातें,
एक काग़ज़ पर आ सकती हैं |
क्या मेरे जस्बात कभी,
ये स्याही लिख सकती है |

फिर सोचा अस्क बहाना क्या,
बीते पर फिर पछताना क्या |
गर टुटे हैं कुछ सपने तो,
सपनों का शोक मनाना क्या |

फिर सोचा की मुस्कान लिखूं,
दिल के नूतन अरमान लिखूं |
लिख दूं ममता का मैं आँचल,
घर के आँगन की शाम लिखूं |

पर यार सुहाने पल भी अब,
दिल में कुछ ऐसे चुभते हैं |
ताज रखा हो जब सर पर,
पर पैर मे कांटें चुभतें हो |

फिर सोचा कोई मुझसा होता,
मैं जिसको हाल सुना पाता |
कुछ सुनता मैं बातें उसकी ,
कुछ अपने अस्क बहा पाता |

फिर सोचा कोई मुझसा हो,
या फिर मैं उस जैसा हूँ |
पर यार नही मुझसा कोई ,
और ना मैं ही उस जैसा हूँ |

फिर सोचा क्या तनहाई है,
क्या किस्मत उसने पाई है |
हर पल मैं साथ रहूं उसके ,
फिर भी इतना सकुचाई है |

बातों का सार नही होता,
पर बातें संसार चलाती है |
कुछ बातें उड़ती हैं नभ मे,
और कुछ बातें दब जाती है|

Thursday, May 24, 2007

मजबूरी

मदिरालाय में यार कभी
प्याले की शर्त नही होती,
जो सच्चा प्रेम पूजारी हो,
वो आँखों से रस पान करे ,

ना शर्त कभी कोई रखना,
ना आँखों से मदिरा चखना/
जब रह चुनी है ख़ुद मैने ,
तो फिर मरने से क्या डरना/

मान अनुभव की कमी मुझे ,
छ्ल यार नही मुझको दिखता /
पैर दोष तो है सारा उसका ,
जो सार वहाँ बैठे लिखता /

कुछ उसकी भी मजबूरी होगी,
थोड़ी तो श्र्म जरूरी होगी/
प्र सोचो श्याम बिना ज़्ग मे,
राधा कैसे पूरी होगी/

प्रेम अगर सच्चा होगा
फ़ीर स्वती बूँद भी बरसेगा /
जो सच्चा प्रेम पूजरी होगा,
स्ट वरसों तक तरसेगा /

हम बस कर्म करें अपना,
परिणाम की क्या चिंता करना /
आनंद मिल्ले यौवन घट मे,
पूजा मदिरालाय मे करना /