Wednesday, June 24, 2015

मैं कस्तूरी ढूंढ़ रहा हूँ..

ढूंढ रहा हूँ व्याकुल होकर,
कुछ तो खाली खाली सा है।
पता नहीं क्यों लगे अधूरा,
क्यूँ मन बिन पानी, मछली सा है ।

चाह नहीं अम्बर छूने की,
ना धरती पर, पग धरने की।
ना कोई ख्वाहिस् जीने की,
और ना ही इच्छा मरने की ।

ना मैं योगी, ना मैं भोगी,
न जाने किस ओर चला हूँ ।
आनंद हूँ, आनंद पाने को,
मृग बन, कस्तूरी ढूंढ़ रहा हूँ

Friday, May 1, 2015

थोड़ा वक़्त तो लगता है ।

हवा सदा अनुकूल चले, बस ऐसा कम ही होता है,
अनचाहा परिवर्तन अक्सर , थोड़ा दर्द तो देता है। 
थको नहीं तुम, बढ़ो निरंतर, अपनी मंजिल पाने को,
पतझड़ से कोंपल आने तक, थोड़ा वक़्त तो लगता है । 

चाल समय की  सदा सर्वदा, परिवर्तित हो जाती है,
ज्वलन सुबह के बाद सही, एक निर्मल रात भी आती है। 
सतत परिश्रम करते जाओ, बढ़ते जाओ मंज़िल तक,
फिर थक कर, बेसुध गिरने से, थोड़ा आराम तो मिलता है ।

Friday, January 9, 2015

घनघोर अँधेरा


जाने क्यों हर बात पर, चिढ़ने लगा हूँ मै,
जाने क्यूँ लगता है सब, मेरे विरुद्ध हैं । 
हर रास्ते में भय का, है घनघोर अँधेरा,
जिस रोशनी की आस थी, जाने वो किधर है। 

हाँथ आ जाने का भरम,  कुछ देर से टुटा,
मेरा नहीं था जो कभी, उसका गुमान क्यों। 
मुद्दत से समेटा है, खुद को सबके दरमियाँ,
मैं फूट न जाऊं कहीं, इस बात का डर है  ।