तुम ग़ज़ल बन के जो,
आ गयी सामने |
बस तुम्हे पढके ही,
मैं कवि बन गया |
तेरी हर इन्द्रियाँ,
यूँ थी अनुपात में |
नज़म गढ़ दिया |
तेरे यौवन कि मदिरा,
बही इस तरह |
घूरते-घूरते मैं,
कहीं बह गया |
होंठ से दाँत कि,
जंग को देख कर,
क्या बताऊँ तुम्हे,
मैं कहाँ खो गया |