Friday, December 17, 2010

पिघल रहा वो चन्दन सा तन

अपना तो मैं भूल चूका हूँ ,
बस तेरी यादें बाकि है |
भूली बिसरी शरद में लिपटी,
तेरी अह्सासें बाकि है |
याद ना हो तुझको शायद ,
तेरी यौवन का अल्हड़पन |
तेरी हर एक कमर के बल पर ,
वर्षों से रूहें  घायल है | 
बारिस  कि बूँदों से घायल,
पिघल रहा वो चन्दन सा तन |
तेरी साँसों कि गर्मी  से,
अब भी मेरी रातें पागल है |
माना याद नहीं तुमको कुछ,
ख़त, दस्तखत, वादें , यादें तक |
पर तेरी दांतों के बल पर,
मेरी जस्बातें घायल है | 
बारिस  कि बूँदों से घायल,
पिघल रहा वो चन्दन सा तन |
भूली बिसरी शरद में लिपटी,
तेरी अह्सासें बाकि है |

Saturday, November 27, 2010

याद.........

यकीं तो है कि फिर रंगत चमन कि लौट आएगी,
मगर सब जख्म भर जाए, मुझे मुमकिन नहीं लगता |
तुम्हारी याद दामन में, चिकोटेंगी मुझे जब भी,
तुम्हे मैं भूल पाऊँगा, मुझे मुमकिन नहीं लगता |
बड़ी मुश्किल से तेरी याद को, मैंने किया रुखसत,
मगर तू याद न आए, मुझे मुमकिन नहीं लगता |

Thursday, September 30, 2010

इन्सान बाँट डाला

अब बांटने  का चस्का,
ऐसा लगा आनंद |
घर-बार बाँट  डाला,
और प्यार बाँट डाला |
जो फिर भी सुकूँ ना आया,
तो  संसार बाँट डाला  |
इधर छू कर गयी नहीं,
हवा साजिस लिए कोई |
हमने उधर तपाक से ,
जिस्म रूह बाँट  डाला |
ऊपर है जिसका राज़,
वो सायद जुदा ना हो  |
हमने जिसके नाम पर,
इन्सान बाँट डाला |

Saturday, September 4, 2010

फासले दरमियाँ

तुम्हे फुर्सत  ना थी, 
और हम भी व्यस्त  बहुत थे |
फिर ये जो फासले है दरमियाँ , 
वो  बे-वजह नहीं |
तुम खुद में थे मगन, 
और हम दुनिया कि खोज में |
ये लम्बी राह जो है दरमियाँ,
ये बे-वजह नहीं |

Monday, July 19, 2010

हंस बनना चाहता हूँ |

खुद को रंग चुने में मैं भी,
हंस बनना चाहता हूँ |
हाँथ में जो बंध ना पाए,
 वों रेत बनना चाहता हूँ |
रोज़ सपनों में जिसे मैं, 
देखता हूँ,  रात  भर,
बस उसी सपने को मैं,
अंजाम देना चाहता हूँ |
माना कि मुझसे खफा,
होकर के बैठी है  कही,
बस आज उस तक़दीर का,
मैं साथ देना चाहता हूँ |
नाम तेरा मैं भी लिख सकता था,
दीवारों पर मगर,
मैं तुम्हे गंगा के जैसा,
साफ रखना चाहता हूँ |
नाम जुड़कर के मेरा,
बदनाम ना कर दे तुम्हे,
बस इसी डर से, 
मैं तुझसे दूर रहना चाहता  हूँ |
ना नींद में यादें मेरी,
फिर आ के झकझोरे तुम्हे,
इसलिए यादों में खुद ही,
दफन  होना चाहता हूँ |
फिर इकिंचित नाम सुनकर के मेरा,
 तुम्हे दर्द ना हो,
खुद को रंग चूने में मैं भी,
हंस बनना चाहता हूँ |

Sunday, July 11, 2010

आखिरी राह

जो आज मेरा है,
कल किसी और का होगा,
इस बाज़ार में कुछ,
 बे वज़ह नहीं होता  |
जुड़ें है लोग यहाँ ,
अपने किसी मकसद से,
बिना मतलब के कोई, 
साथ अब  नहीं देता |
वों वक्त और था,
जब खून बहा देतें थे,
अब बिना स्वार्थ
कोई हाँथ भी नहीं देता |
हर कोई बाटना चाहेगा,
ख़ुशी तेरे संग,
तेरा गम बांटने को, 
कोई भी नहीं होगा |
जब तक जिंदा हो,
ये बोझ उठा कर चल लो,
आखिरी राह में कोई
हम सफ़र नहीं मिलता |
यहाँ आनंद सबको,
फिक्र है बस अपनों कि
बे वजह बात,
ज़माने कि वों नहीं करता |

Thursday, May 20, 2010

मैं कवि बन गया ......

तुम ग़ज़ल बन के जो,
आ गयी सामने |
बस तुम्हे पढके ही,
मैं कवि बन गया |
तेरी हर इन्द्रियाँ,
यूँ थी अनुपात में |
देखते देखते ही,
नज़म गढ़ दिया |
तेरे यौवन कि मदिरा,
बही इस तरह |
घूरते-घूरते मैं,
कहीं बह गया |
होंठ से दाँत कि,
जंग को देख कर,
क्या बताऊँ तुम्हे,
मैं कहाँ खो गया |

Sunday, May 9, 2010


जो कुछ भी हूँ बस तुमसे हूँ,
तुमरे बिन मेरा कौन सहारा |
धन्य हुआ यह जीवन पा के,
गर कुछ कर पाऊं भाग हमारा |

मदर's day ki hardik shubh kamnaye...
HAPPY MOTHER'S DAY

Sunday, April 25, 2010

कुछ अधूरे पन्ने

1: 
चैन से सोते थे हम,
जब घर में दरवाज़ा ना था |
जब से पहरेदार रखे,
नींद भी आती नहीं |

2: 


देख  कर  उनको  कदम ,
रुकने  लगें  क्या बात  है |
सोचने  को  हैं  विवश,
क्या  यार  तुममे  खास  है |
दर्जनों गलियां  बदल  ली,
यार  फिर भी  क्या  मिला |..
हर  गली  हर  मोड़  पर,
बस  तेरा  ही  आभास   है |

3:
दिल कि बातें अब जुबां पर ,
उस तरह आती नहीं |
अनगिनत चहरे बदल लेता हूँ,
मैं हर मोड़ पर |
पहले दिल कि बात कागज़ पर,
छपा करती थी सीधे |
अब तो सीधे राह  से,
जाने कब गुजरे कलम |

४:
राह पर मेरे लिए,
कुछ फूल कुछ काटें भी थे |
आदमी के भीड़ में,
कुछ शोर सन्नाटे भी थे |
बात किस्मत कि ना थी,
थी बात रिश्तों कि यहाँ |
कुछ मिले काटें अगर,
कुछ हमने भी बांटे तो थे |
संग मेरे जो घटा,
दिल खोल के अपना लिया |
राह में गर कुछ लुटा ,
कुछ हमने भी नोचें ही थे |

Saturday, April 17, 2010

मैं भुला नाम अपना भी


किताबों को लगा दिल से,
वो पहली बार जब आई |
मैं भुला नाम अपना भी,
चली कुछ ऐसी पुरवाई |

वो चलना यार झुक कर के,
हवा के वेग के जैसा |
मैं भुला नाम अपना भी,
वो जब भी सामने आई |

बहुत चंचल हुआ करता था,
मैं भी उन दिनों में पर |
नहीं कुछ बोल पाया मैं,
वो जब भी सामने आई |

मैं यादों के समंदर में,
लगा गोते हुआ विजयी |
मगर वो दिल कि बातों को,
कहाँ अब भी समझ पाई |

सुना है अब तलक मुझसा,
एक साथी ढूंढती है वो |
जो उसके साथ था हरदम,
उसे वो ढूंढ ना पाई |

उसे नफ़रत थी गजलों से,
मुझे कुछ लोग कहतें थे |
हर ग़ज़ल नाम थी उसके,
जिसे वो पढ़ नहीं पाई |

किताबों को लगा दिल से,
वो पहली बार जब आई |
मैं भुला नाम अपना भी,
चली कुछ ऐसी पुरवाई |

Saturday, April 3, 2010

क्या धाकुं क्या तोपूँ

किसी कि भावना को आहत करने या किसी को उपदेश देने का मेरा कोई इरादा नहीं है |ये पंक्तियाँ आज के परिवेश में फैशन कि वो तस्वीर दिखाना चाहती है जिससे हम मुह तो फेर सकते है पर नकार नहीं सकते. अगर किसी समूह या समुदाय को मेरी बातें ठीक ना लगे तो उन्हें अपना विरोध दर्ज करने का पूरा अधिकार है | कृपया कर इसे फैशन विरोधी या समुदाय विरोधी ना समझे और अगर किसी कि भावना को ढेस पहुंचे तो क्षमा  चाहूँगा |

कलयुग में दुष्यासन आके,
ख़ुद अपने ऊपर शर्माए |
छलिया कृष्ण कहाँ बैठा है,
क्यूँ न चीर बढाये |
चीर नही है तन पर कोई,
नीर न आँख में बाकी,
छुपा कहाँ है आज कृष्ण, 
अब बाँध के हाँथ में राखी |
कृष्ण :-
एक नही है आज द्रौपदी, 
किसकी लाज मैं राखु |
बिन देखे दिखता है सब कुछ, 
क्या धाकुं   क्या तोपूँ 
बैठे यही सोचता हूँ कि,
क्या आऊँ  कलयुग में,
जहाँ लाज को लाज नही आती है,
आज यहाँ इस युग में |
ये कलियुग ऐसा पहिया है,
चक्र वही दोहराए |
मानव आदि  मानव से मानव बन,
फ़िर अदि मानव बन जाए|
कलयुग में दुष्यासन आके,
ख़ुद अपने ऊपर शर्माए |
छलिया कृष्ण कहाँ बैठा है,
क्यूँ न चीर बढाये |

Friday, March 26, 2010

भीड़ जो अच्छी लगी, मैं यार उसमे खो लिया

मन में झांके हर किसी के,
यार ये मुमकिन ना था |
तन से जो सुन्दर लगा,
हम यार उसके हो लिए |

एक घडी में हर किसी को,
जान ले मुमकिन ना था |
एक नजर में जो जँचा'
हम यार उसके हो लिए |

वो जो प्यार का  था रास्ता,
मेरे लिए तो  नया ही था |
चले डगमगा के जिधर कदम
मैं उसी लगी में निकल गया |

संग कारवां का साथ हो,
ये चाह तो बचपन से थी |
फिर भीड़ जो अच्छी लगी,
मैं यार उसमे खो लिया |

Sunday, March 7, 2010

हमको कोई खतरा नहीं??????

गंध बारूदों कि अब,
आने लगी हर मोड़ से |
कह रहा है हर कोई,
हमको कोई खतरा नहीं |

यहाँ धर्म भाषा जाति कि,
चिन्गारियाँ  बिखरी हुई  |
पर कह रहा है हर कोई |
मुझको कोई खतरा नहीं |

अब पडोसी तक दखल,
देता है हर एक बात में |
पर कह रहा है रहनुमा,
उनसे कोई खतरा नहीं |

है लचर अपनी व्यवस्था,
ये जानता है हर कोई  |
पर दिलासा दे रहा है,
हमको कोई खतरा नहीं |

है समय अब भी,
सुधर जाएँ अगर तो ठीक है |
बाद में कह ना सकेंगे,
हमको कोई खतरा नहीं.|

Friday, February 26, 2010

पिताजी के आँखों से बनारस कि सैर

वैभव नाथ शर्मा जी के आँखों से बनारस देख कर मुझे अपने पिताजी कि कुछ पंक्तियाँ याद आ गयी | पिताजी के सामने मेरी बिसात कुछ भी नहीं है एक  अदना सा प्रयास पिताजी के भावों और जस्बातों को अपने ब्लॉग पर उड़ेलने कि | आईये पिताजी के नज़रों से आप सभी को बनारस कि सैर करता हूँ |  काशी  से दूर रहने का दर्द और काशी के वाशी होने का गर्व अगर आप तक पहुंचे तो मैं समझूंगा कि मेरा प्रयास सार्थक हुआ |अगर बनारस का पूरा रस आप तक पहुचे तो सूचित करें मुझे आप सभी के मत का इंतजार रहेगा |


काशी  के वासी रहें, हम हो गए अनाथ,
गंगा मैया छुट गयीं, छुटे भोले नाथ |

काशी के ढ़ग  छुट गए,चाई  मुग़ल सरायं
जरा ध्यान दे जेब पर माल हजम कर जाए |

रांड सांड सीढ़ी छुटल, सन्यासी सतसंग,
गली घाट सब छुट गयल, होए गए मतिमंद |
पंडा के छतरी छुटल, गंगा जी के नीर,
चना चबैना भी छुटल, फूट गयल तक़दीर |

बालू के रेता छुटल, और नैया के सैर,
ना काहू से दोस्ती,  ना काहू  से  बैर |

आय बसें परदेश में, चिकना होगया चाँद,
लडकन के महकै लगल, घर बर्धन के नाद |

ना केहू के खबर बा, ना केहू के हाल,
सोचत सोचत रात  दिन हो जाए  बेहाल |   

बस अपनी इतनी कथा, और नहीं कुछ शेष,
थोडा सा रखना दया हम पर भी अखिलेश |

पहिया चलता समय का, हो जाता सब शेष,
चोपन में परवास दुख भोग रहें अखिलेश |

Sunday, February 21, 2010

कितनी दूर निकल आया ?

पाँव जमीं पर रख करके,
कल ही तो चलना सीखा था |
नन्हे नन्हे कदमो से मै,
कितनी दूर निकल आया |

गुड्डे गुड़ियों के किस्से,
मानो कल कि ही बातें थी,
मै अपनो के दामन  से,
ये कितनी दूर निकल आया |

नींद  नहीं आती थी  मुझको,
माँ कि लोरी सुने बिना |
बाबुल   कि उंगली  पकडे,
मैं कितनी दूर निकल आया |

कदर न थी तब तक कोई,
जब तक मांगे  मिल  जाता  था | 
आज ये जाना अपनो को तज,
मैं कितनी दूर निकल आया |

कल मेरी ये राहें  शायद,
सबसे अलग हो जाएँगी |
मैं अपने सपनो के पीछे,
मीलों दूर निकल आया |

गूगल पर देख कर खुद को,
जो फूटें गुलगुले दिल में |
बताऊँ हाल क्या अपना,
लगे हफ्तों उबरने में  |


Thursday, February 11, 2010

तेरे इस बाज़ार में मौला

तेरे इस बाज़ार में मौला,
बस चिकनी चीजे बिकती है |
मन चंचल हो जाये जिससे,
बस वो सूरत ही दिखती है |

यहाँ बेच रहा है हर कोई,
अब तेरे मेरे सपनों को |
हो सौदा यहाँ मुनाफे का,
फिर वस्तु चाहे  जैसी हो |

विज्ञापन से आज यहाँ,
सब मुमकिन हो जाता है|
जब बोतल में नल का पानी,
यहाँ गंगा जल बन जाता है|

नामुमकिन सा काम यहाँ,
आकर मुमकिन हो जाता है |
फटा पुराना कपडा भी अब,
लाखों में बिक जाता है |

हर गली में हर चौबारे पर,
ना  जाने क्या चुभ जाता है |
तेरे इस बाज़ार में मौला,
जब इज्ज़त बिक जाता है |

तेरे इस बाज़ार में मौला,
बस चिकनी चीजे बिकती है |
मन चंचल हो जाये जिससे,
बस वो सूरत ही दिखती है |

Sunday, February 7, 2010

कैसे लिखूं और क्या लिखूं

कैसे लिखूं और क्या लिखू,
ये कौन बतलाता मुझे |
सोच में है क्या कमी,
ये कौन  समझता मुझे
दोस्त दुश्मन और खुद मै,
खुद से इतना दूर था |
जो लिख रहा हूँ वो सही है|
कैसे समझ आता मुझे |
कहने को तो मौके कई,
आए स्वतः ही सामने |
अहमियत हर बात कि,
फिर कौन समझाता मुझे |
बात पूरी या अधूरी,
जो समझ आती गयी |
आंख मुदे फिर कलम,
बिन बात लहराती रही | 
कैसे लिखूं और क्या लिखूं
ये कौन बतलाता मुझे |
सोच में है क्या कमी,
ये कौन समझाता मुझे |

Wednesday, February 3, 2010

वो पौध घर के साथ हमने ही लगायी थी |

एक पेड़ के छांया ने,
फिर हमको पनाह दी,
जिस पेड़ के जड़ ने,
मेरी दिवार ढाई थी |

टुटा जो मेरा आसियाँ,
गलती न थी उसकी,
वो पौध घर के साथ,
हमने ही लगायी थी |

मुस्कुरा  के जी सकूँ,
इतनी से चाह ले |
आ गया सब छोड़ कर,
इसकी पनाह में | 

सिकवा गिला नहीं,
न कोई रंजिसे बाक़ी,
सुरुवात नयी ज़िन्दगी कि,
फिर  करने यहाँ से |

जो बुरा था बीत गया,
बस इस ख्याल से |
आ गया आनंद यहाँ, 
फिर मिलने जहाँ से |
 

Wednesday, January 27, 2010

बाँट लो अपना घरौंदा




फायदा क्या साथ रहने में,
यहाँ फिर बे-सबब |
जब लगे बर्तन खनकने,
यार हो जाओ अलग |
जब सिर्फ अपनी बात ही,
सबको सही लगने लगे|
बाँट लो अपना घरौंदा,
ताकि हंस कर मिल सके |
बात एक दूजे कि जब,
कान में चुभने लगे,
मौन ब्रत धर  लो वहां,
ताकि सुकून से रह सको|
जब हुआ हर काम ,
अपना ही किया लगने लगे |
और रिश्ते खुद पर तुझको,
बोझ से लगने लगे |
जब लगे है फायदा, 
दूर रहने में तुम्हे |
तब  तोड़ दो एक घर कि ,
फिर  दो घर ख़ुशी से रह सके | 

Friday, January 8, 2010

ये गहरी खाइयाँ क्यूँ है |

ख़ुशी के समन्दर में,
ये गम के बुलबुले क्यूँ है |
अपनों के इस  भीड़ में,
हम यहाँ तन्हा क्यूँ है|


यूँ तो सूरज रोज आता है,
 मेरे दर पर हर सुबह| 
फिर भी मेरे दर पर,
 ये घोर अँधेरा क्यूँ है |


साथ चलने से यूँ  तो,
मिटा करती थी दूरियां | 
फिर ये हम दम से,
ये इतना फांसला क्यूँ है |


मिलने कि है आरजू,
कई मुद्दत से सनम |
दिलों के बिच में अब तक,
ये गहरी खाइयाँ क्यूँ है |