Monday, December 14, 2009

देवदास सा मैं पागल

न मदिरा कि प्यास मुझे,
ना काम बिना मदिरा चलता |
न देवदास सा मैं पागल  ,
न बिन पारो ही मन लगता |


ग्वालाये रास नहीं आती,
नाही राधा ही मन भाती |
न कोई स्वर्ग कि चाह मुझे,
न बिना मेनका आँख लगे |


व्यथा मेरी सुनकर अक्सर,
संसार ये कहता है हंस कर |
राम राम कि बेला में,
देखो बैठा है फिर पीकर  |

Wednesday, December 2, 2009

अब प्रयोगों से ही पैदा, हो रहा है आदमी

आदमी औरत का संगम,
दशकों  पुरानी बात है |
अब प्रयोगों से भी,
पैदा हो रहा है आदमी |

जोडियाँ बनती हैं ऊपर,
वर्षों पुरानी बात है |
आज कल तो मर रहा है,
आदमी पर आदमी |

मूर्खता कह लो इसे,
या प्रेम कि पराकास्ठा |
भौतिक सुखों कि चाह ले,
दुनियाँ से लड़ता आदमी |

मन कि आज़ादी कहो या,
 मानसिक दुर्भावना |
भेद लिंगो का मिटा,
कुदरत से लड़ता आदमी |

तितलियाँ भंवरे यहाँ,
अपने में ही मद मस्त है |
जाने  ये किस मोड़ पर,
अब बढ़ रहा है आदमी |

इसकी नक़ल उसकी नक़ल,
हर रोज़ करता आदमी |
सभ्यता को ताख पर रख,
रोज़ मरता आदमी |

जो जरूरी हो उसे,
 दिल खोल के अपना सके   |
इस ज़रा सी बात से,
कीचड़ में सनता आदमी |

रेत पर पानी का दरिया, 
है ये भौतिकवाद बस |
भूल कर अपनी हकीक़त,
दर-दर भटकता आदमी |

तितलियाँ भंवरे यहाँ,
अपने में ही मद मस्त है |
अब प्रयोगों से ही पैदा,
हो रहा है आदमी  |   

Wednesday, November 25, 2009

अब इंतज़ार किसका है

क्यूँ इंतजार है हमें,
रहनुमा का अब भी |
खून से लतफत,
ये देश हमारा भी है |
कब तलक फिर  दोष,
हम  देते  रहेंगे उनको  |
कीचड़ में सना देश,
आखिर तो हमारा भी है |
अधिकार सिरोधार्य है ,
जब नागरिक है हम |
सर गर्व से ऊँचा हो,
ये कर्त्तव्य हमारा भी है |
माना कि बहुत है यहाँ,
अंतर विचार में पर |
खाईयों को पाटने का,
काम हमारा भी है |
माना कि कमी है यहाँ,
मार्ग दर्शको का पर,
जो हर वक़्त बढ़ रहा है,
वो देश हमारा ही  है |


Sunday, October 25, 2009

दुनिया बदलने वाली है

मन तरंगों संग हिलोरे ,
ले रहा है आज कल |
कौन जाने कौन सी,
दुनिया सवरने वाली है|
|

घुप्प अँधेरे रात में,
बिजलियों की ये चमक |
ये इशारा कर रही है,
रात छटने वाली है |
|

बाग में पीपल के पत्ते,
गिर गए तो क्या हुआ,
अब कपोलों की छटा,
हर और दिखने   वाली है |
|

आँख से निकले ये आंसू,
दे रहे पैगाम कुछ,
रेत के इस ढेर से,
गंगा गुजरने वाली है |
|

एक नए सुरुआत की, 
आओ पहल मिल कर करे |
कल हमारे सोच से,
दुनिया बदलने वाली है |

Tuesday, October 6, 2009

डर क्यूँ है?

अकेला ही चला था,
साथ अपनो का तज के|
जो मेरे साथ न था,
फिर उससे शिकायत क्यूँ है?

जब मैं यहाँ हर मोड़ पर,
अपनो से बचता आया हूँ|
आज इस मोड़ पर ,
अपनों कि जरूरत क्यूँ है?

जब नहीं सोचा कि,
अंजाम क्या होगा इसका |
आज उसी सोच से,
आनंद मुझे घिन्न क्यूँ है?

छुपाता हूँ मैं खुद को,
सैकडों चहरे के तले |
मैं जैसा हूँ नहीं,
फिर वैसा दिखावा क्यूँ है?

जहां जाता हूँ मै,
आनंद बदल जाता हूँ |
रेशमी रूह पर फिर,
खद्दर का चढावा क्यूँ है?

बना रखा है फिर,
काजल से घरौंदा अपना |
पतित होकर भी मुझे,
दाग से नफ़रत क्यूँ है?

किया है काम जैसा,
फल भी वैसा ही होगा |
जब नहीं मानता फिर,
रब से इतना डर क्यूँ है?

Tuesday, September 29, 2009

मर्यादा और संसद

जुते चप्पल चला रहे हैं, न्याय के ठेकेदार यहाँ |
मर्यादा का चिर हरण, है सदनों का पर्याय यहाँ ||

शर्म नहीं जिनके अन्दर, ये ऐसे बड़े कलंदर है |
जो फूंके घर खुद अपना, ये वो कलाबाजी बन्दर हैं ||

स्तर उठा रहे संसद का, ये अमर्यादित वचनों से |
फूंक रहे जनता कि दौलत, अपने अपने सपनो पर ||

चोर उचक्कों गुंडों तक से, सबका हिस्सा बंधा हुआ,
जिसकी सत्ता आती है, वो ही बन जाता जोंक नया ||

कुछ खाते हैं चन्दों से, कुछ जन्मदिवस पर खाते है|
जनता सुख भले जाये, ये पार्क नया बनवाते है ||

कोई खता है मंदिर का, कोई मस्जिद कि खाता है|
कौन बताएगा हमको कि, ये पैसा कहाँ से आता है| |

हैं आज करोणों के मालिक, जो कल टुकडों पर जीते थे |
मदिरा बहती है उसके घर, जो कल तक पानी पीते थे ||

जनता के मेहनत का पैसा, कला धन बन जाता है 
सौ रुपया चलते चलते, जब दस रुपया बन जाता है | |

आय पर कर न देने पर, हम चोर यहाँ बन जाते है|
जो रोज घोटाला करते है, वो बा इज्ज़त बच जाते है ||

जुते चप्पल चला रहे हैं, न्याय के ठेकेदार यहाँ |

मर्यादा का चिर हरण, है सदनों का पर्याय यहाँ ||

Wednesday, May 27, 2009

नाम फैशन का

जब से दुनियाँ आपको ,
आधुनिक कहने लगी |
बस उसी पल से तुम्हारी ,
बिजलियाँ गिरने लगी |

तन ढाका करता था पूरा,
जब तलक आभाव था |
अब बचे कतरन से दौलत ,
बे-सबब बहने लगी |

मेरी सराफत भी उन्हें ,
अब चाल सी लगाने लगी |
जब से घर की लाज बाहर,
रात तक रहने लगी |

दाम कपडों के यहाँ,
बे इंतहा गिरने लगे |
दौपदी जब से यहाँ ,
बिन चीर बिचरने लगी |

नाम फैशन का हुआ ,
इंसानियत गिरने लगी |
जब से रम्भा रैंप पर ,
दो पीस में चलने लगी |

जब से दुनियाँ आपको ,
आधुनिक कहने लगी |
बस उसी पल से तुम्हारी ,
बिजलियाँ गिरने लगी |

Monday, May 25, 2009

सपथ ग्रहण या ' ग्रहण '

फ़ुट रहे हैं लड्डू दिल में,
ख़त्म हुआ मतदान |
सरे मुद्दे भूल के आओ ,
हम फिर टकराए जाम |

सही गलत की चर्चा छोडो,
यहाँ से नोचो वहाँ पे जोडो |
पांच साल का समय बड़ा है,
गठबंधन से धन गठीयालो |

तुमने मुझपर मैंने तुम पर,
कीचड़ खूब उछाला है |
चलो बदल लें कूर्ता अपना |
जो कीचड़ से कला है |

जनता थी चालाक मगर,
कुछ खास नहीं था करने को |
पांच साल के लिए हमें ,
खुद चुनकर लायी मरने को |

प्रतिनिधि बनकर जनता की,
प्रतिघात उसी पर करना है |
निधि लूट कर जनता की ,
अब खुद की जेबें भरना है |

फ़ुट रहे हैं लड्डू दिल में,
ख़त्म हुआ मतदान |
सरे मुद्दे भूल के आओ ,
हम फिर टकराए जाम |

Wednesday, May 13, 2009

किसका कुर्ता है सफेद,

किसका कुर्ता है सफेद,
ये भेद बताने आया हूँ
मेरा कुर्ता सबसे सफेद,
ये तुम्हे बताने आया हूँ |
चोर उच्च्को की टोली ले
इस चुनाव मे आया हूँ |
राम राज़ का सपना अपना,
मैं तुम्हे दिखना आया हूँ |
बंद करूँगा केस सभी,
जो खुले हुए है थाने मे |
दबा के रखूं मैं पैसा,
इस बार भी संसद जाने मे |
एक बार चुनो तुम मुझे यहाँ,
फिर चुन चुन तुम्हे सताऊँगा |
पाँच साल के बाद तुम्हे,
फिर स्वप्न यही दिखलाऊंगा |
मुझको चुनना है चुन लो ,
मुझ जैसा कोई और नही |
जिसमे जनता की खुशियाँ,
फिर आएगा ऐसा दौर नही |
जो दंगो का दोषी होगा,
मंत्री पद उसे दिलाऊँगा |
फिर सालों तक कोर्ट के बाहर,
न्याय तुम्हे दिलवाऊंगा |
सालों साल लगेगा चक्कर,
न्याय यहाँ पर पाने मे |
और मिलेगा न्याय तुम्हे,
जब सांस ना होगी खाते मे |
किसका कुर्ता है सफेद,
ये भेद बताने आया हूँ |

Tuesday, May 12, 2009

समस्या ही समस्या है

समस्या ही समस्या है,
कहो कैसे गिनाए हम |
यूँ ही काग़ज़ पर लिख दे,
या मौखिक ही सुनाए हम |
जो भी आता है बस,
वादों की गठरी बाँध जाता है|
बहुत कुछ है भरा इसमे,
कहो कैसे उठाए हम |
हमारे गाँव मे भी है ,
गड़े बिजली के कुछ खंबे |
इनायत हो अगर उनकी ,
तो कुछ रोशन भी हो जाए|
नही अंतर समझ आता,
तालाबों और सड़कों मे |
कहो किस रास्ते इस गाँव के,
दर्शन कराएँ हम |
है बसता गाँव मे भारत,
यहाँ के लोग कहते है |
कभी फ़ुर्सत मे आना तो,
तुम्हे भारत घूमए हम |

Friday, May 1, 2009

चुनाव और मुद्दा

किसी को बाबरी का गम,
कोई मस्जिद बना रहा |
है वक़्त वादों का सो,
हर कोई सपने दिखा रहा |
तुरत रंग बदलने का हुनर,
यहाँ अब पास है सबके |
जो कल तक साथ था ,
वो ही यहाँ खंजर चला रहा |
है जिसका सोचने का काम,
वो बस सोचता रहे |
उन्हें फुर्सत नहीं इतनी ,
की वो कुछ सोच तक सके |
शुरू है गलियों का दौर,
अब दोनों ही मुकाम से|
गरम है लौह पुरुष तो,
कहाँ कमजोर शांत है |
न जाने किसने दिया,
लौह पुरुष का उन्हें दर्जा |
एक वार भी न झेल सके,
जो लौह पुरुष का |
न हो सर्कार वो,
जो देश का मखौल उडाये |
दलित के नाम पर ,
खुद के लिए फिर महल बनाए |
न कोई फिर हँसे अब
आम आदमी के नाम पर |
चुनो उसको यहाँ जो दे दे,
जान अपनी देश पर |
किसी को बाबरी का गम,
कोई मस्जिद बना रहा |
है वक़्त वादों का सो,
हर कोई सपने दिखा रहा |

Wednesday, April 29, 2009

इश्वर या खुदा

क्या हुआ मस्जिद गिरा के,
जब न मंदिर बन सका |
तेरे आपसी षडयंत्र से ,
बिन छत के मौला रह गया |

मेरे लिए जो राम है,
तेरे लिए रहमान है |
अंतर था केवल नाम का,
जिससे खुदा तक बँट गया |

सोचा न था उसने कभी,
जिसने दिया था जन्म फिर,
क्यूँ हाँथ में तलवार ले ,
भाई से भाई कट गया |

तू मांगता कर खोलकर ,
मैं हाँथ जोड़े मांगता हूँ |
फिर अहम् किस बात का,
जाती धरम और पात का |

बीतेगा क्या दिल पर तेरे,
कैसे करेगा तू सामना ,
जब तेरे दश नाम पर,
बच्चे तेरे लड़ने लगे |

आओ यहाँ मिल कर सभी,
पूजा करें कलमा पढ़े |
है चार दिन की ज़िन्दगी,
जाना है सबको फिर वहाँ |

Wednesday, April 15, 2009

विनोद दूआ LIVE

है रूतबा और गुण भी है,
सच बोल सके ये दम भी है |
बस 20 मिनट,हफ्ते मे 4 दिन,
शायद समय थोड़ा कम है |
इस बड़े भारत देश मे,
हर मोड़ बदलता ज़ायक़ा |
कौन है जो कम समय मे,
फैला सके इतना रायता ?
परिवर्तन की आँधी है ये,
लुक्का छुप्पि बहुत हुआ |
आने वाला कल बेहतर हो,
हो जब संग अपने विनोद दूआ|
आनंद है यहाँ उनका फ़ैन,
जो बात कहे बिन रोक टोक |
आवाज़ उठा और कदम बढ़ा,
अब देर न कर चल दिल्ली चल |

Saturday, February 21, 2009

बिष उगलता आया हूँ

में नदी के नीर सा,
बहता गया एक ओर
अनगिनत सपनों से होकर,
मैं बहा किस ओर |
मैं बहा किस ओर ,
मुझको क्या ख़बर है,
मंजिल की दिल में चाह,
सिने में सबर है |
उद्गम में जो उन्माद था,
कुछ थम सा गया है |
अंत का साया भी,
कुछ गहरा गया है
हर किनारे पर कई
सपने सजा कर आया हूँ,
कुछ मछलियों को नई
मंजिल दिला कर आया हूँ |
बह रहा हूँ बिन रुके,
फ़िर भी किनारे कोसते है |
सच है सायद ये भी की,
उनको जुदा कर आया हूँ |
रत्न मानिक सब मेरे,
मझधार में ही खो गए,
बस ये खर पतवार ही,
मैं संग बहा कर लाया हूँ |
अब फसल मेरे वजह से
जल रहे हैं खेत में,
हर बूंद में अपने में इतना,
बिष उगलता आया हूँ |
मैं न इतना क्रूर था
जिस पल चला था सैर पर
कौन जाने की ये दुर्गुण,
मैं कहाँ से लाया हूँ |

Friday, February 20, 2009

अच्छा लगा ...आनंद

हर गली हर मोड़ पर
जो भी मिला अच्छा लगा
बंद कलियाँ भी मिली
कोई फूल सा खिल के मिला
कुछ फूल काँटों संग मिले
कुछ फूल बिन काटों मिला
पर इस कड़कती धुप में
जो भी मिला शीतल लगा |
कुछ मिले धब्बो के संग
कुछ लोग रंगों संग मिले
पर इस मतलबी भीड़ में
जो भी मिला हंस कर मिला
कुछ यार मिलने को मिले
कोई बोझ सा तन कर मिला
पर जो भी मिला आनंद से
आनंद फ़िर खुल के मिला |||||

Monday, February 2, 2009

कुछ ऐसी ग़ज़ल बनाओ

सब भाव यहाँ मिल जाएँगे,
शब्दों के जाल बनाओ अब |
जिससे भर जाए आंखे ,
कुछ ऐसी ग़ज़ल बनाओ अब |
तेरा मेरा है अजर-अमर ,
रिस्तो के बाँध बनाओ अब |
जिससे सज जाए अम्बर,
एक ऐसा गाँव बसाओ अब |
हर दुआ असर दायक होगी,
मन्नत का दौर चलाओ अब,
जिससे भर जाए दामन ,
कुछ ऐसे ध्यान लगाओ अब |
बहुत हो चुका मार काट,
न ऐसे धर्म निभाओ अब |
इस बारूद के बिस्तर पर,
न ऐसे आग लगाओ अब |
सब भाव यहाँ मिल जाएँगे,
शब्दों के जाल बनाओ अब |
जिससे भर जाए आंखे ,
कुछ ऐसी ग़ज़ल बनाओ अब

Sunday, January 25, 2009

शब्दों का षडयंत्र

कभी-कभी ये शब्द मेरे,
मुझसे बेईमानी करते है|
ख़ुद को इधर उधर करके,
कुछ अनचाहा सा गढ़ते है |

भाव का होता है आभाव,
रस अलंकार से लड़ते है |
कभी कभी पन्ने मेरे ,
कुछ चितकबरे से दिखते हैं |

पहले मैं यही समझता था,
मैं जादूगर हूँ शब्दों का |
पर उलझाकर ये मुझको,
बस अपने मन की करते है |

पर ये सच है शब्द मेरे,
मुझको पहचान दिलाते है |
मेरे दिल की बातों को,
ये कागज पर ले आते है |

ये भी सच है इनके बिन,
" आनंद" का अस्तित्व नही |
हो उबड़ खाबड़ जैसी भी,
पहचान मेरी बस इनसे ही |

कभी-कभी ये शब्द मेरे,
मुझसे बेईमानी करते है|
ख़ुद को इधर उधर करके,
कुछ अनचाहा सा गढ़ते है

Wednesday, January 21, 2009

भेज़ा फ्राइ

पंसारी के दूकान मे,पनवारी के पान मे,
मोची के जूते मे, गाय के खूटे मे,
महीने के राशन मे, नेता के भाषण मे,
पंडित के झोली मे, बोली ठिठोली मे,
फिल्म की कहानी मे, रात मच्छरदानी मे,
झूठे अस्वासन मे,अपनो के शासन मे,
परीक्षा के प्रश्नो मे, साधू के वचनो मे,
दिन के उजाले मे, रात के अंधेरे मे,
कविता के छंदों मे, अल्ला के बन्दो मे,
मंदिर के घंटों मे, मस्जिद के चोंगो मे,
जाम के प्याले मे, ख्वाबों ख़यालों मे,
क्रिकेट के छक्कों मे,और बस के धक्कों मे,
तराजू के बट्टो मे, जूओं मे सॅटो मे,
राहों के गड्ढों मे, अइयासी के अड्डों मे,
गोरी के बाहों मे,पीपल की छाँव मे,
जहाँ देखता हूँ मिलावट ही मिलावट है |

रात माँ की लॉरी मे,सपनो की डोरी मे,
बाबुल के कंधो मे, प्रेमी के पंजो मे,
ग़रीबी के चादर मे, अमीरी के खद्दर मे,
कॉलेज के यादों मे, हर एक वादों मे,
बागो मे गलियों मे,फूलों की कलियों मे,
पानी के फब्बरों मे,रंग के गुब्बारों मे,
ज़िंदगी के घेरे मे,शादी के फेरे मे,
थाली के रोटी मे, और जमाल घोटी मे,
सर के हर बॉल मे, चमड़े मे खाल मे,
जहाँ देखता हूँ मिलावट ही मिलावट है |

Saturday, January 17, 2009

किसकी सत्ता......साधू कौन

अभी शुरुआत है, ना जाने कितने तीर छुपा रखे है |
हमने इस चेहरे पर,ना जाने कितने चेहरे लगा रखे है |

वो जो दौरे भगदड़ थी, उसकी बिसात कुछ भी नही,
तुम्हारे वास्ते हर घर मे नया जाल बिछा रखा है |

मुझे तू जनता है, ये भूल है और कुछ भी नही,
हमने कितनो को, इसी भ्रम मे फँसा रखा है |

वो बात और है की हम उनसे अलग दिखाते है,
मगर ये अफवाह भी, खुद हमने उड़ा रखा है |

वो तो सच बोलता था, जो भी किया था उसने,
हमने तो खुद से भी, कई राज़ छुपा रखा है |

तुम जितना बेच सको, बेच लो दुनियाँ "आनंद",
बस चार दिन का सही, ये बाज़ार बचा रखा है |

बच के निकल गये तो, अच्छी है किस्मत "आनंद",
वो भी मुझसा ही था,हमने यहाँ जिसको हटा रखा है |

Friday, January 16, 2009

कोई सरफिरा

कभी मेरे हाथो मे भी हाथ होगा ,
कोई सरफिरा तब मेरे साथ होगा |
अकेला हूँ मैं, राह भी कुछ बड़ी है,
कभी मेरे पीछे भी संसार होगा |

भले राह मे आज काँटे बिछे हो,
कभी तो ये राहें आ मुझसे मिलेंगी |
भले सारी नदियाँ हो उफान पर अब,
कभी तो ये सागर से ही जा मिलेंगी |

भले दुनिया मुझपर नही दाव खेले,
मगर मुझको खुद पर अभी भी यकी है |
भले रात काली भयानक कटी हो,
सूरज की किरण कभी तो दिखेंगी |

भले काले बादल से सूरज ढका हो,
कभी इसकी किरण जमी पर पड़ेंगी |
ये माना की परछाईयाँ खो गयी है,
कभी तो ये कदमो मे मेरे मिलेंगी |

मजबूर हूँ लेकिन टूटा नही हूँ,
अभी पाव मेरे खुद उठ कर चलेंगे |
दबा दो भले कब्र मे आज सच को,
वो छुपा ना सकेंगे मेरी अहमियत को |

Thursday, January 15, 2009

समंदर से कर दुश्मनी........

समंदर से कर दुश्मनी,
मैं किनारों पर सपने सुखाता रहा |
हर लहर यूँ तो दुश्मन घरौंदो की थी,
वो मिटाती रही मैं बनाता रहा |

खिचता था लकीरे किनारों पर मैं,
पर साहिल पर मुझको भरोशा ना था |
ख्वाब अपने भिंगो करके अश्को से मैं,
काल के गाल मे ही छुपाता रहा |

जब बनाने लगा घोंसला प्यार का,
रुख़ हवाओं का भी फिर बदल सा गया |
जो हवाए फिर देती थी दिल को सुकून,
आज वो भी अचानक दहकने लगी |

चाँद पूरा था जो कल तक आकाश मे,
आज वो भी ग्रहण से प्रभावी लगा |
पी कर जिसको भुलाता था संसार को,
आज बोतल वही फिर नशे मे लगी |

समंदर से कर दुश्मनी,
मैं किनारों पर सपने सुखाता रहा |
हर लहर यूँ तो दुश्मन घरौंदो की थी,
वो मिटाती रही मैं बनाता रहा |

Sunday, January 11, 2009

कुछ बंदीसे

दिल के हर अहसास को,
हम काश कह पाते |
उमड़े हुए हर भाव को,
कागज पर लिख पाते ||

बहुत कुछ दिल मे है मेरे,
जो ऐसे कह नही सकता |
बड़ी मुस्किल है बिन बोले भी,
मैं अब रह नही सकता ||

मगर कुछ बंदीसे ऐसी है,
जो मुझे भी रोकती है |
अगर अपनी पर आजाए,
तो सरहद चीज़ क्या है ||

Friday, January 9, 2009

प्रण ये भी उठाकर चलिए...

जो भी मिल जाए उसे दोस्त बनाते चलिए,
फ़िज़ा मे अमन का एक फूल खिलाते चलिए |

खिलखिला के हो रुख्सत जो मिले अब हमसे,
अपने कंधो को आँसुओ से भिगोते रहिए |

यहाँ बिखरी हो किल्कारियाँ मोती की तरह,
पड़े जो राह मे उसे भी गोद उठाते चलिए |

हर घर मे उजाला हो फिर मकसद अपना,
अपने घर का एक दिया बाजू मे जलाते रहिए |

न खाली पेट सोए यार किसी का बचपन,
अपनी थाली की एक रोटी ही बाँटते चलिए |

ना आए आँच कभी, देश के उपर कोई,
इस नये वर्ष मे प्रण ये भी उठाकर चलिए |

हो नये वर्ष मे चारो तरफ खुशियाँ फैली,
अपनी रचनाओ से "आनंद" लूटाते रहिए |

Wednesday, January 7, 2009

हादसा.....

जब हृदय कि बात कोई,
बिन कहे सुनने लगे |
और सारे रास्ते,
खुद आप से जुड़ने लगे |
जब हवा खुद रुख़ बदल कर,
आप संग चलने लगे |
और सारे फूल कलियाँ,
खुद राह मे बिछने लगे |

तुम चलो चाहे जहाँ,
और कारवाँ बनने लगे |
तेरी कही हर बात जब,
सारा जहाँ सुनने लगे |
जब समंदर खुद-ब-खुद,
देने लगे तुम्हे रास्ता,
बच के रहना खुद से भी,
कही हो ना जाए "हादसा"|

Tuesday, January 6, 2009

कब सफल होगी कूटनीति ?

आख़िर कब तक हम देश हित को दूर रखकर इसी प्रकार से सम्मेलन करते रहेंगे | एक महीने से हम उसे सबूत देने मे जुटे हुए है जो खुद आतंकवाद का सरजमीन तैयार करता है | अब तो ये सोच के शर्म आने लगी है कि अपने देश कि बागडोर कैसे नपुंसको के हाथ मे है जो अपने हितो के लिए भी गैर के दरवाजे पर मत्था टेक रहे है | और एक पड़ोसी देश जिसकी खुद मे कुछ औकात नही है वो हमे जबाबी करवाई कि धमकी पर धमकी दिए जा रहा है |आख़िर ये कूटनीति कब तक सफल होगी ?

है राजनीति का ये बिस्तर,
और महल खड़ा है मुद्दों का |
पेट नही भरता मेरा अब,
इस कूटनीति के दावत से ||

आतंकवाद के नाम पर अब,
जितनी चाहो रोटी सेको |
यहाँ गली ना दाल अगर तो,
फिर दुनियाँ मे मत्था टेको ||

अपनी ग़लती उसके सर पर,
वो और किसी पर थोपेगा |
यही चलन है राजनीति का,
जिसने जाना, शुख भोगेगा ||

औकात नही जिसकी खुद मे,
वो भी हमे राह बताएगा |
और चार दीनो कि बात है ये,
फिर सब वैसा हो जाएगा ||

कल का मुद्दा आज अहम है,
आज कि कल फिर देखेंगे |
आतंकवाद कि पृष्ठ भूमि मे,
हम खुद अपना घर फूंकेंगे ||

अपने घर कि रक्षा को,
कब तक घुटनो पर रेंगोगे |
अपनी बात मनाने को,
अब किस दर मत्था टेकोगे ||

Thursday, January 1, 2009

कैसे मनाया नया साल ||

उसने दस्तक दिया मेरे दर पर बहुत ,
फोने कर के मुझे फिर बुलाता रहा ||
पी के सोया था घर मे जो उस रात को ,
बॉस दो रात तक फिर जगाता रहा ||

फ्री कि मुझको मिली और मैं पीता गया,
जाने कब पाँव फिर लड़खड़ाने लगा ||
दोष मेरा ना था, पर मैं बदनाम था,
हर कोई मुझपर तोहमत लगाता गया ||

मेरे चेहरे का कुछ और ही हाल था,
दाँत थे हिल रहे, जबड़ा बेहाल था ||
देखकर शर्मा गया आईना भी मुझे ,
अपना परिचय जब उससे कराने लगा ||

पेट मे थी कसक, पैर बेहाल था,
पीठ पर दर्द का आया भूचाल था ||
भूलकर दर्द को घर से निकला ही था,
शोर आने लगी वो गया साल था ||

उसने दस्तक दिया मेरे दर पर बहुत ,
फोने कर के मुझे फिर बुलाता रहा ||
पी के सोया था घर मे जो उस रात को ,
बॉस दो रात तक फिर जगाता रहा ||