Tuesday, October 7, 2008
सब भाव कहीं पर छूट गये |
सुख गयी स्याही सारी,
कागज के पन्ने भींग गये |
जब दिल ने चाहा लिखना,
सब भाव कहीं पर छूट गये |
सोचा छन्दो का बंधन हो,
दोहों का भी अभिनंदन हो |
पर मेरे रचनाओं से,
रस, अलंकार तक रूठ गये |
अब रिस्तो की गाँठो मे भी,
पहले जैसा भाव नही,
मुझको गले लगाने को,
अब कोई भी तैयार नही |
है हर शब्दों मे व्यंग भरा,
अब जो मुझसे टकराती है |
बात करू किससे दिल की,
जब अपने ही कतराते हैं |
सुख गयी स्याही सारी,
कागज के पन्ने भींग गये |
जब दिल ने चाहा लिखना,
सब भाव कहीं पर छूट गये |
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है हर शब्दों मे व्यंग भरा,
ReplyDeleteअब जो मुझसे टकराती है |
बात करू किससे दिल की,
जब अपने ही कतराते हैं |
सुख गयी स्याही सारी,
कागज के पन्ने भींग गये |
जब दिल ने चाहा लिखना,
सब भाव कहीं पर छूट गये |
वाह! बहुत बढ़िया लिखा है.