बड़े सपनों की जब औकात थी,
गुल्लख से नपने की,सुनाऊंगा तुम्हे मैं बात,
कुछ अपने ही बचपन की |
जब सिक्का एक का,
पड़ता था दस के नोट पर भारी |
खनक गुल्लख की लाती थी,जब एक मुस्कान फिर प्यारी |.........
धनुष ले हाँथ में,
एक पल में यारों राम बन जातें |
कभी घुटनों पर जा बैठें,
और हम रहमान बन जातें |
धर्म और जात का अंतर,
जब हमको पता ना था |
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा भी,
सब एक जैसा ही था |
कई किरदार थे अन्दर,
जो बहार आ ही जाते थे |
कभी चड्ढी पहन के मोगली,
कभी घुमे गोल और शक्तिमान बन जातें |
घूम्चियों के बीज जब.
मोती से सुन्दर थे |
बड़े ही चाव से हम,
फिर घुम्चियाँ धागों में बुनते थे |
मिटटी खोद कर जब,
केचुए, हांथों से चुनते थे |
चारा मिल गया ये सोचकर,
दिल खोल हँसते थे |
कांटा चार आने का,
फंसाकर अपनी बंसी में |
निकल पडतें थे नंगे पांव,
घर में शार्क लेन को |||
जारी..
awesome Tapashwani...
ReplyDeleteThanks Pandey Ji..
ReplyDeleteमिटटी खोद कर जब,
ReplyDeleteकेचुए, हांथों से चुनते थे |
चारा मिल गया ये सोचकर,
दिल खोल हँसते थे
...........सच कहा है खूबसूरत शब्द भाव