Wednesday, September 26, 2007

"शब्दों का हेर फेर" एक दर्द

दर्द नही बाटूँ.गा अपना, जिससे दुनियाँ है भरी हुई
मैं बाटूँ दिल का टुकड़ा , दिखे हसीना मुझे कहीं

राम नही बन पाया तो क्या, श्याम बनाऊगा ख़ुद को
सीता जब बची नही जाग मे, राधा संग रास रचाऊगा

नही स्वर्ग की चाह मुझे , धरती पर स्वर्ग बसाऊंगा
और मेनका संग बैठा मैं, प्यार की धूनी रमाऊँगा

कैट रहेगी शाम साथ में, सुस संग रात बिताऊँगा
तनु श्री होगी द्वार पाल , जब यार कहीं मैं जाऊंगा

उसकी पत्नी अपनी होगी, जो यार कर्ण सा दानी होगा
उसका बन जाऊंगा भाई मैं , जो यार दौपड़ी स्वामी होगा

ये था सबदों का हेर फेर , जो सोचोगे दिख जाएगा
गर साफ़ हुआ दिल तो अच्छा, गर पाप हुआ जल जाएगा

गर मेरे दुशशाहस से, कुच्छ सिख लिया तो अच्छा है
जिसने ना देखा मरम है क्या, वो यार अभी भी बच्चा है

"आधुनिक वातावरण"

जो जितना त्याग करे वस्त्रों का,
वो उतनी अच्छी मॉडेल है
जिससे तन ढकता हो कम,
वही आज कल फ़ैशन है

द्वपार मे आकर दुष्यासान,
फ़र्ज़ी मे बदनाम हुआ
सको आना था कलियुग मे,
जहाँ वस्त्र का केवल नाम बचा

है द्रौपदि का गोल यहाँ,
उर्मिला सी कम दिखती हैं
और कागज़ी नोटों पर,
हर रोज़ मेनका बिकती है

जब स्तर गिरता है कपड़ों का,
तब स्टेटस बढ़ता है
क्यूं गिरे ना फिर स्तर ज़ीवन का,
जहाँ यार फिगर बस दिखता हो

चाहे ऑफीस का द्वार हो कोई,
या टटपुजीया अख़बार हो कोई
यार कौड़ी यों की भावो में,
शर्म यहाँ पर बिकता है

प्राणी अलग नही तुमसे मैं ,
यार तुम्हारे जैसा ही हूँ
पर यार ख़टकती हैं कुछ बातें,
जो मैं ख़ुद से कहता हूँ

मैं छमा प्रर्थि फ़ैशन का,
गर भूल हुई हो कुछ मुझसे
और छहमा उस नारी जाती से,
श्रिस्टी शुरू हुई जिससे

"समय चक्र"

एक सपना देखा था मैने,एक सपना ख़ुद चल आया था,
एक टूट गया जब जागा  मैं, दूजे को ख़ुद ठुकराया था |
माना की दौलत साथ न थी ,पर हम राजा सम दिखते थे,
थी ख़ुशियाँ क़दमो में अपने, और पाव हवा मे चलते थे |
यार समय का चक्र जहाँ , कुछ धीरे-धीरे चलता था,
जहाँ बच्चा माँ की आँचल में, निर्भय होकर सोता था |
जब यार भयानक सपने भी, गोद मे आ खो जाते थे,
गरज बरस अस्कों  के बदल,  आंचल मे जम जाते थे |
जब काम नही करने का फल, हमको हाथो पर दिखता था,
जब यार किताबों के  पन्नो पर, नाम किसी का लिखता था
यार खुली आँखों मे जब , कुछ ख्वाब नये से सजते थे,
और नये से चित्र कई जब, अपने  बटुए मे  सजते  थे |
वो यार बचा कर जब नज़रे, हम राह किसी का तकते थे
एक दिल के लाखो टुकड़े कर, फिर सबको बाँटा करते थे  |
कुछ के दाँतो के कायल थे,  कुछ के चेहरे पर मरते थे,
कुछ चलती थी बल खा के, हम जिनको घुरा करते थे  |
हर गलियों मे चौबरों पर, फिर प्यार हमे हो जाता था,
जब भी नज़रे टकराई तो, दिल का टुकड़ा खो जाता था  |
पर यार शाम घर आने पर, सीधा बच्चा बन जाता था,
थी आँचल मे इतनी ख़ुशिया, कुछ याद नही फिर आता था |
अब अस्कों  की सागर मे, यादों की नाव चलाता  हू,
फिर रिस्तों की डोरी संग , आप लिपटता जाता हूँ |
कुछ पाने का अहम्  है तो, कुछ खो जाने का ग़म भी है,
कुछ यादें मीठी सी दिल में, कुछ बात से आँखे नम  भी है |

Tuesday, September 11, 2007

ख़ुद पत्थर पऱ मारेँ पैर,ये काम नहीं है मर्दों का

ख़ुद पत्थर पऱ मारेँ पैर,
ये काम नहीं है मर्दों का
मेनका ना बने अगर कोई,
तो विशवामित्र नही जनता

तन पऱ वस्त्र नही पूरे,
आँखों से खाख उतारेंगे
हो नीर बची गर आँखों मे,
तो हम भी ख़ुद के रावन को मरेंगे

गर सीता को छू लेने से ,
रावन का अंत सूनिस्चित था
फिर तो सीता को ह्रने में ,
सीता की सामिल थी इच्छा

हालात नही पैदा होंगे,
तो हर नर मे हनुमान होंगे
जहाँ एक अफ़सरा जन्मेग़ी,
दस इंद्रा वहाँ पैदा होंगे

ग़ज़लों से मोह नही किसको

अपनी यादों के गागऱ से ,
मैं रोज़ समंदर भरता हूँ
वो भूल चुकी है नाम मेरा,
मैं नाम उसी का रटता हूँ

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था हर बातों मे अर्थ छुपा,
सारी बातें तो व्यर्थ ना थी
था अंधेरे का कुच्छ मतलब,
सारी रातें तो व्यर्थ ना थी


सायद मेरे कहने का ढंग ,
रास ना आता हो उनको
जहाँ रोज़ महफिलें सजती हों,
ग़ज़लों से मोह नही किसको