वैभव नाथ शर्मा जी के आँखों से बनारस देख कर मुझे अपने पिताजी कि कुछ पंक्तियाँ याद आ गयी | पिताजी के सामने मेरी बिसात कुछ भी नहीं है एक अदना सा प्रयास पिताजी के भावों और जस्बातों को अपने ब्लॉग पर उड़ेलने कि | आईये पिताजी के नज़रों से आप सभी को बनारस कि सैर करता हूँ | काशी से दूर रहने का दर्द और काशी के वाशी होने का गर्व अगर आप तक पहुंचे तो मैं समझूंगा कि मेरा प्रयास सार्थक हुआ |अगर बनारस का पूरा रस आप तक पहुचे तो सूचित करें मुझे आप सभी के मत का इंतजार रहेगा |
काशी के वासी रहें, हम हो गए अनाथ,
गंगा मैया छुट गयीं, छुटे भोले नाथ |
काशी के ढ़ग छुट गए,चाई मुग़ल सरायं
काशी के ढ़ग छुट गए,चाई मुग़ल सरायं
जरा ध्यान दे जेब पर माल हजम कर जाए |
रांड सांड सीढ़ी छुटल, सन्यासी सतसंग,
गली घाट सब छुट गयल, होए गए मतिमंद |
पंडा के छतरी छुटल, गंगा जी के नीर,
चना चबैना भी छुटल, फूट गयल तक़दीर |
बालू के रेता छुटल, और नैया के सैर,
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर |
आय बसें परदेश में, चिकना होगया चाँद,
लडकन के महकै लगल, घर बर्धन के नाद |
ना केहू के खबर बा, ना केहू के हाल,
सोचत सोचत रात दिन हो जाए बेहाल |
बस अपनी इतनी कथा, और नहीं कुछ शेष,
थोडा सा रखना दया हम पर भी अखिलेश |
पहिया चलता समय का, हो जाता सब शेष,
चोपन में परवास दुख भोग रहें अखिलेश |