Friday, February 26, 2010

पिताजी के आँखों से बनारस कि सैर

वैभव नाथ शर्मा जी के आँखों से बनारस देख कर मुझे अपने पिताजी कि कुछ पंक्तियाँ याद आ गयी | पिताजी के सामने मेरी बिसात कुछ भी नहीं है एक  अदना सा प्रयास पिताजी के भावों और जस्बातों को अपने ब्लॉग पर उड़ेलने कि | आईये पिताजी के नज़रों से आप सभी को बनारस कि सैर करता हूँ |  काशी  से दूर रहने का दर्द और काशी के वाशी होने का गर्व अगर आप तक पहुंचे तो मैं समझूंगा कि मेरा प्रयास सार्थक हुआ |अगर बनारस का पूरा रस आप तक पहुचे तो सूचित करें मुझे आप सभी के मत का इंतजार रहेगा |


काशी  के वासी रहें, हम हो गए अनाथ,
गंगा मैया छुट गयीं, छुटे भोले नाथ |

काशी के ढ़ग  छुट गए,चाई  मुग़ल सरायं
जरा ध्यान दे जेब पर माल हजम कर जाए |

रांड सांड सीढ़ी छुटल, सन्यासी सतसंग,
गली घाट सब छुट गयल, होए गए मतिमंद |
पंडा के छतरी छुटल, गंगा जी के नीर,
चना चबैना भी छुटल, फूट गयल तक़दीर |

बालू के रेता छुटल, और नैया के सैर,
ना काहू से दोस्ती,  ना काहू  से  बैर |

आय बसें परदेश में, चिकना होगया चाँद,
लडकन के महकै लगल, घर बर्धन के नाद |

ना केहू के खबर बा, ना केहू के हाल,
सोचत सोचत रात  दिन हो जाए  बेहाल |   

बस अपनी इतनी कथा, और नहीं कुछ शेष,
थोडा सा रखना दया हम पर भी अखिलेश |

पहिया चलता समय का, हो जाता सब शेष,
चोपन में परवास दुख भोग रहें अखिलेश |

Sunday, February 21, 2010

कितनी दूर निकल आया ?

पाँव जमीं पर रख करके,
कल ही तो चलना सीखा था |
नन्हे नन्हे कदमो से मै,
कितनी दूर निकल आया |

गुड्डे गुड़ियों के किस्से,
मानो कल कि ही बातें थी,
मै अपनो के दामन  से,
ये कितनी दूर निकल आया |

नींद  नहीं आती थी  मुझको,
माँ कि लोरी सुने बिना |
बाबुल   कि उंगली  पकडे,
मैं कितनी दूर निकल आया |

कदर न थी तब तक कोई,
जब तक मांगे  मिल  जाता  था | 
आज ये जाना अपनो को तज,
मैं कितनी दूर निकल आया |

कल मेरी ये राहें  शायद,
सबसे अलग हो जाएँगी |
मैं अपने सपनो के पीछे,
मीलों दूर निकल आया |

गूगल पर देख कर खुद को,
जो फूटें गुलगुले दिल में |
बताऊँ हाल क्या अपना,
लगे हफ्तों उबरने में  |


Thursday, February 11, 2010

तेरे इस बाज़ार में मौला

तेरे इस बाज़ार में मौला,
बस चिकनी चीजे बिकती है |
मन चंचल हो जाये जिससे,
बस वो सूरत ही दिखती है |

यहाँ बेच रहा है हर कोई,
अब तेरे मेरे सपनों को |
हो सौदा यहाँ मुनाफे का,
फिर वस्तु चाहे  जैसी हो |

विज्ञापन से आज यहाँ,
सब मुमकिन हो जाता है|
जब बोतल में नल का पानी,
यहाँ गंगा जल बन जाता है|

नामुमकिन सा काम यहाँ,
आकर मुमकिन हो जाता है |
फटा पुराना कपडा भी अब,
लाखों में बिक जाता है |

हर गली में हर चौबारे पर,
ना  जाने क्या चुभ जाता है |
तेरे इस बाज़ार में मौला,
जब इज्ज़त बिक जाता है |

तेरे इस बाज़ार में मौला,
बस चिकनी चीजे बिकती है |
मन चंचल हो जाये जिससे,
बस वो सूरत ही दिखती है |

Sunday, February 7, 2010

कैसे लिखूं और क्या लिखूं

कैसे लिखूं और क्या लिखू,
ये कौन बतलाता मुझे |
सोच में है क्या कमी,
ये कौन  समझता मुझे
दोस्त दुश्मन और खुद मै,
खुद से इतना दूर था |
जो लिख रहा हूँ वो सही है|
कैसे समझ आता मुझे |
कहने को तो मौके कई,
आए स्वतः ही सामने |
अहमियत हर बात कि,
फिर कौन समझाता मुझे |
बात पूरी या अधूरी,
जो समझ आती गयी |
आंख मुदे फिर कलम,
बिन बात लहराती रही | 
कैसे लिखूं और क्या लिखूं
ये कौन बतलाता मुझे |
सोच में है क्या कमी,
ये कौन समझाता मुझे |

Wednesday, February 3, 2010

वो पौध घर के साथ हमने ही लगायी थी |

एक पेड़ के छांया ने,
फिर हमको पनाह दी,
जिस पेड़ के जड़ ने,
मेरी दिवार ढाई थी |

टुटा जो मेरा आसियाँ,
गलती न थी उसकी,
वो पौध घर के साथ,
हमने ही लगायी थी |

मुस्कुरा  के जी सकूँ,
इतनी से चाह ले |
आ गया सब छोड़ कर,
इसकी पनाह में | 

सिकवा गिला नहीं,
न कोई रंजिसे बाक़ी,
सुरुवात नयी ज़िन्दगी कि,
फिर  करने यहाँ से |

जो बुरा था बीत गया,
बस इस ख्याल से |
आ गया आनंद यहाँ, 
फिर मिलने जहाँ से |