Sunday, February 21, 2010

कितनी दूर निकल आया ?

पाँव जमीं पर रख करके,
कल ही तो चलना सीखा था |
नन्हे नन्हे कदमो से मै,
कितनी दूर निकल आया |

गुड्डे गुड़ियों के किस्से,
मानो कल कि ही बातें थी,
मै अपनो के दामन  से,
ये कितनी दूर निकल आया |

नींद  नहीं आती थी  मुझको,
माँ कि लोरी सुने बिना |
बाबुल   कि उंगली  पकडे,
मैं कितनी दूर निकल आया |

कदर न थी तब तक कोई,
जब तक मांगे  मिल  जाता  था | 
आज ये जाना अपनो को तज,
मैं कितनी दूर निकल आया |

कल मेरी ये राहें  शायद,
सबसे अलग हो जाएँगी |
मैं अपने सपनो के पीछे,
मीलों दूर निकल आया |

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना है.बचपन की यादें ताजा कर गई आपकी यह रचना ।बधाई।

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  2. अद्भुत। शब्दों में अपने जज्बातों को खूब पिरोया है। जितनी आगे निकलने की खुशी होती है, उसका ही पीछे मुड़कर देखने पर दुख भी होता है। जिन्दगी सफर है, चलना हमारा कर्म

    एक बात चलते चलते मुझे लगता है कि इस पंक्ति को आप ऐसे लिखें तो बेहतर होगा।

    नींद नहीं आती थी मुझको,
    माँ की लोरी सुने बिना |

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  3. ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है .

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