अकेला ही चला था,
साथ अपनो का तज के|
जो मेरे साथ न था,
फिर उससे शिकायत क्यूँ है?
जब मैं यहाँ हर मोड़ पर,
अपनो से बचता आया हूँ|
आज इस मोड़ पर ,
अपनों कि जरूरत क्यूँ है?
जब नहीं सोचा कि,
अंजाम क्या होगा इसका |
आज उसी सोच से,
आनंद मुझे घिन्न क्यूँ है?
छुपाता हूँ मैं खुद को,
सैकडों चहरे के तले |
मैं जैसा हूँ नहीं,
फिर वैसा दिखावा क्यूँ है?
जहां जाता हूँ मै,
आनंद बदल जाता हूँ |
रेशमी रूह पर फिर,
खद्दर का चढावा क्यूँ है?
बना रखा है फिर,
काजल से घरौंदा अपना |
पतित होकर भी मुझे,
दाग से नफ़रत क्यूँ है?
किया है काम जैसा,
फल भी वैसा ही होगा |
जब नहीं मानता फिर,
रब से इतना डर क्यूँ है?
बहुत खूब
ReplyDeleteजहां जाता हूँ मै,
आनंद बदल जाता हूँ |
रेशमी रूह पर फिर,
खद्दर का चढावा क्यूँ है?
सही कहा सुन्दर रचना
वाह बहुत सुन्दर फिर डर क्यों जब अकेले आये थे और अकेले जाना है ...बहुत सही सुन्दर रचना . बधाई .
ReplyDeleteहमारे आज को बेनक़ब करती हुई पंक्तियाँ :-
ReplyDeleteछुपाता हूँ मैं खुद को,
सैकडों चहरे के तले |
मैं जैसा हूँ नहीं,
फिर वैसा दिखावा क्यूँ है?
बहुत अच्छी लगी रचना।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
aap sabhi ka bahut bahut dhanyawad!!
ReplyDeletetapashwani
बहुत बढिया रचना है बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteबना रखा है फिर,
ReplyDeleteकाजल से घरौंदा अपना |
पतित होकर भी मुझे,
दाग से नफ़रत क्यूँ है?
इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....