जुते चप्पल चला रहे हैं, न्याय के ठेकेदार यहाँ |
मर्यादा का चिर हरण, है सदनों का पर्याय यहाँ ||
शर्म नहीं जिनके अन्दर, ये ऐसे बड़े कलंदर है |
जो फूंके घर खुद अपना, ये वो कलाबाजी बन्दर हैं ||
स्तर उठा रहे संसद का, ये अमर्यादित वचनों से |
फूंक रहे जनता कि दौलत, अपने अपने सपनो पर ||
चोर उचक्कों गुंडों तक से, सबका हिस्सा बंधा हुआ,
जिसकी सत्ता आती है, वो ही बन जाता जोंक नया ||
कुछ खाते हैं चन्दों से, कुछ जन्मदिवस पर खाते है|
जनता सुख भले जाये, ये पार्क नया बनवाते है ||
कोई खता है मंदिर का, कोई मस्जिद कि खाता है|
कौन बताएगा हमको कि, ये पैसा कहाँ से आता है| |
हैं आज करोणों के मालिक, जो कल टुकडों पर जीते थे |
मदिरा बहती है उसके घर, जो कल तक पानी पीते थे ||
जनता के मेहनत का पैसा, कला धन बन जाता है
सौ रुपया चलते चलते, जब दस रुपया बन जाता है | |
आय पर कर न देने पर, हम चोर यहाँ बन जाते है|
जो रोज घोटाला करते है, वो बा इज्ज़त बच जाते है ||
जुते चप्पल चला रहे हैं, न्याय के ठेकेदार यहाँ |
मर्यादा का चिर हरण, है सदनों का पर्याय यहाँ ||
मर्यादा का चिर हरण, है सदनों का पर्याय यहाँ ||
शर्म नहीं जिनके अन्दर, ये ऐसे बड़े कलंदर है |
जो फूंके घर खुद अपना, ये वो कलाबाजी बन्दर हैं ||
स्तर उठा रहे संसद का, ये अमर्यादित वचनों से |
फूंक रहे जनता कि दौलत, अपने अपने सपनो पर ||
चोर उचक्कों गुंडों तक से, सबका हिस्सा बंधा हुआ,
जिसकी सत्ता आती है, वो ही बन जाता जोंक नया ||
कुछ खाते हैं चन्दों से, कुछ जन्मदिवस पर खाते है|
जनता सुख भले जाये, ये पार्क नया बनवाते है ||
कोई खता है मंदिर का, कोई मस्जिद कि खाता है|
कौन बताएगा हमको कि, ये पैसा कहाँ से आता है| |
हैं आज करोणों के मालिक, जो कल टुकडों पर जीते थे |
मदिरा बहती है उसके घर, जो कल तक पानी पीते थे ||
जनता के मेहनत का पैसा, कला धन बन जाता है
सौ रुपया चलते चलते, जब दस रुपया बन जाता है | |
आय पर कर न देने पर, हम चोर यहाँ बन जाते है|
जो रोज घोटाला करते है, वो बा इज्ज़त बच जाते है ||
जुते चप्पल चला रहे हैं, न्याय के ठेकेदार यहाँ |
मर्यादा का चिर हरण, है सदनों का पर्याय यहाँ ||
बिल्कुल सही कहा!!
ReplyDeleteबेहतरीन रचना.
अजी आपने तो सब के राज खोल दिये, बहुत सुंदर लगी आप की यह कविता.
ReplyDeleteधन्यवाद
........ बेहद प्रभावशाली
ReplyDeleteApp sabhi ka bahut bahut dhanyawad!!
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