रिश्तों कि डोरी पकडे मैं, कुछ और दूर चलना चाहूँ,
लुक्का छुप्पी कर उलझन से, बचपन में जीना चाहूँ |
छूट गया जो वर्षों पहले, बचपन के चौराहों पर तब,
उसी पुराने सकरे पग पर, मैं नंगे पग चलना चाहूँ |
माना थका नहीं हूँ अब भी मैं, हंसी, ठिठोली, बोली से पर,
लुक्का छुप्पी कर उलझन से, बचपन में जीना चाहूँ |
छूट गया जो वर्षों पहले, बचपन के चौराहों पर तब,
उसी पुराने सकरे पग पर, मैं नंगे पग चलना चाहूँ |
माना थका नहीं हूँ अब भी मैं, हंसी, ठिठोली, बोली से पर,
अम्मा कि आँचल में छुप कर, फिर बच्चों सा रोना चाहूँ |
तपस्वनी आनन्द जी
ReplyDeleteसस्नेहाभिवादन !
बहुत ख़ूब !
छूट गया जो वर्षों पहले, बचपन के चौराहों पर तब,
उसी पुराने सकरे पग पर, मैं नंगे पग चलना चाहूं
माना थका नहीं हूं अब भी मैं, हंसी, ठिठोली, बोली से पर,
अम्मा कि आंचल में छुप कर, फिर बच्चों सा रोना चाहूं
सच है बचपन की स्मृतियों को हम जीवन भर संजोये रखना चाहते हैं …
आपकी छोटी-छोटी रचनाएं अच्छी लगीं … बधाई !
♥श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई-शुभकामनाएं!♥
- राजेन्द्र स्वर्णकार
आनन्द जी
ReplyDelete... प्रशंसनीय रचना - बधाई
आपने ब्लॉग पर आकार जो प्रोत्साहन दिया है उसके लिए आभारी हूं
ReplyDeleteअच्छे शब्द,
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