Monday, July 19, 2010

हंस बनना चाहता हूँ |

खुद को रंग चुने में मैं भी,
हंस बनना चाहता हूँ |
हाँथ में जो बंध ना पाए,
 वों रेत बनना चाहता हूँ |
रोज़ सपनों में जिसे मैं, 
देखता हूँ,  रात  भर,
बस उसी सपने को मैं,
अंजाम देना चाहता हूँ |
माना कि मुझसे खफा,
होकर के बैठी है  कही,
बस आज उस तक़दीर का,
मैं साथ देना चाहता हूँ |
नाम तेरा मैं भी लिख सकता था,
दीवारों पर मगर,
मैं तुम्हे गंगा के जैसा,
साफ रखना चाहता हूँ |
नाम जुड़कर के मेरा,
बदनाम ना कर दे तुम्हे,
बस इसी डर से, 
मैं तुझसे दूर रहना चाहता  हूँ |
ना नींद में यादें मेरी,
फिर आ के झकझोरे तुम्हे,
इसलिए यादों में खुद ही,
दफन  होना चाहता हूँ |
फिर इकिंचित नाम सुनकर के मेरा,
 तुम्हे दर्द ना हो,
खुद को रंग चूने में मैं भी,
हंस बनना चाहता हूँ |

3 comments:

  1. किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।

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  2. Tapashwani kumar Anand JI
    BAHUT KHOOB.....LIKHA HAI SIR JI

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