खुद को रंग चुने में मैं भी,
हंस बनना चाहता हूँ |
हाँथ में जो बंध ना पाए,
वों रेत बनना चाहता हूँ |
रोज़ सपनों में जिसे मैं,
देखता हूँ, रात भर,
बस उसी सपने को मैं,
अंजाम देना चाहता हूँ |
माना कि मुझसे खफा,
होकर के बैठी है कही,
बस आज उस तक़दीर का,
मैं साथ देना चाहता हूँ |
नाम तेरा मैं भी लिख सकता था,
दीवारों पर मगर,
मैं तुम्हे गंगा के जैसा,
साफ रखना चाहता हूँ |
नाम जुड़कर के मेरा,
बदनाम ना कर दे तुम्हे,
बस इसी डर से,
मैं तुझसे दूर रहना चाहता हूँ |
ना नींद में यादें मेरी,
फिर आ के झकझोरे तुम्हे,
इसलिए यादों में खुद ही,
दफन होना चाहता हूँ |
फिर इकिंचित नाम सुनकर के मेरा,
तुम्हे दर्द ना हो,
खुद को रंग चूने में मैं भी,
हंस बनना चाहता हूँ |
किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।
ReplyDeleteTapashwani kumar Anand JI
ReplyDeleteBAHUT KHOOB.....LIKHA HAI SIR JI
Thanks Bhaskar Ji!
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