भाव भुला कहीं, रस का अभाव सा,
खो गये रंग भी, और अलंकार भी |
सोच कुंठित हुई, शब्द भी खो गये,
पात्र झूठे लगे, ज़िंदगी के मुझे ,
ज़िंदगी भी मुझे आज झूठी लगी |
शब्द सागर मे एक बूँद बाकी नही,
भाव सागर भी मुझको यू खाली मिली |
जब भी चाहा की कुछ मै नया सा लिखूं,
मुझको हर मोड़ पर फिर उदासी मिली |
सूत्रो मे मैं बँधा ही रहा हर घड़ी,
सोच को भी जहाँ कुछ आज़ादी ना थी |
था मात्रा की गड़ना से आज़ाद मै,
चार चरणो से खुद को बचा ना सका |
भाव भुला कहीं, रस का अभाव सा |
खो गये रंग भी, और अलंकार भी |
बहुत उम्दा!!
ReplyDeleteपात्र झूठे लगे, ज़िंदगी के मुझे ,
ReplyDeleteज़िंदगी भी मुझे आज झूठी लगी
बेहतरीन रचना...वाह...
नीरज
आप का बहुत बहुत धन्यवाद !!
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