क्या हुआ मस्जिद गिरा के,
जब न मंदिर बन सका |
तेरे आपसी षडयंत्र से ,
बिन छत के मौला रह गया |
मेरे लिए जो राम है,
तेरे लिए रहमान है |
अंतर था केवल नाम का,
जिससे खुदा तक बँट गया |
सोचा न था उसने कभी,
जिसने दिया था जन्म फिर,
क्यूँ हाँथ में तलवार ले ,
भाई से भाई कट गया |
तू मांगता कर खोलकर ,
मैं हाँथ जोड़े मांगता हूँ |
फिर अहम् किस बात का,
जाती धरम और पात का |
बीतेगा क्या दिल पर तेरे,
कैसे करेगा तू सामना ,
जब तेरे दश नाम पर,
बच्चे तेरे लड़ने लगे |
आओ यहाँ मिल कर सभी,
पूजा करें कलमा पढ़े |
है चार दिन की ज़िन्दगी,
जाना है सबको फिर वहाँ |
भाई,
ReplyDeleteअच्छा लिखा है। रचना में एक नयापन है रूटीनियत की शिकार नही।
अच्छा बंद है :-
तू मांगता कर खोलकर ,
मैं हाँथ जोड़े मांगता हूँ |
फिर अहम् किस बात का,
जाती धरम और पात का
बधाईयाँ
मुकेश कुमार तिवारी
तेरे नाम अनेक तू एक ही है...सच में समझने की बात है!अच्छा मुद्दा उठाने के लिए धन्यवाद...
ReplyDeleteग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है
ReplyDeleteExcellent
ReplyDeleteकाश आप जैसे विचार इश्वर उन लोगो को देता