Wednesday, April 29, 2009

इश्वर या खुदा

क्या हुआ मस्जिद गिरा के,
जब न मंदिर बन सका |
तेरे आपसी षडयंत्र से ,
बिन छत के मौला रह गया |

मेरे लिए जो राम है,
तेरे लिए रहमान है |
अंतर था केवल नाम का,
जिससे खुदा तक बँट गया |

सोचा न था उसने कभी,
जिसने दिया था जन्म फिर,
क्यूँ हाँथ में तलवार ले ,
भाई से भाई कट गया |

तू मांगता कर खोलकर ,
मैं हाँथ जोड़े मांगता हूँ |
फिर अहम् किस बात का,
जाती धरम और पात का |

बीतेगा क्या दिल पर तेरे,
कैसे करेगा तू सामना ,
जब तेरे दश नाम पर,
बच्चे तेरे लड़ने लगे |

आओ यहाँ मिल कर सभी,
पूजा करें कलमा पढ़े |
है चार दिन की ज़िन्दगी,
जाना है सबको फिर वहाँ |

4 comments:

  1. भाई,

    अच्छा लिखा है। रचना में एक नयापन है रूटीनियत की शिकार नही।
    अच्छा बंद है :-
    तू मांगता कर खोलकर ,
    मैं हाँथ जोड़े मांगता हूँ |
    फिर अहम् किस बात का,
    जाती धरम और पात का

    बधाईयाँ

    मुकेश कुमार तिवारी

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  2. तेरे नाम अनेक तू एक ही है...सच में समझने की बात है!अच्छा मुद्दा उठाने के लिए धन्यवाद...

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  3. ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है

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  4. Excellent
    काश आप जैसे विचार इश्वर उन लोगो को देता

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