फायदा क्या साथ रहने में,
यहाँ फिर बे-सबब |
जब लगे बर्तन खनकने,
यार हो जाओ अलग |
जब सिर्फ अपनी बात ही,
सबको सही लगने लगे|
बाँट लो अपना घरौंदा,
ताकि हंस कर मिल सके |
बात एक दूजे कि जब,
कान में चुभने लगे,
मौन ब्रत धर लो वहां,
ताकि सुकून से रह सको|
जब हुआ हर काम ,
अपना ही किया लगने लगे |
और रिश्ते खुद पर तुझको,
बोझ से लगने लगे |
जब लगे है फायदा,
दूर रहने में तुम्हे |
तब तोड़ दो एक घर कि ,
फिर दो घर ख़ुशी से रह सके |
जब सिर्फ अपनी बात ही,
ReplyDeleteसबको सही लगने लगे|
बाँट लो अपना घरौंदा,
ताकि हंस कर मिल सके |
बिलकुल सही बात है सुन्दर रचना के लिये बधाई
baat to sahi ;ikhi hai per itni aasaan nahin
ReplyDeleteअभिव्यक्ति सुन्दर है, निःसंदेह ध्येय आपका भी शांति ही है !
ReplyDeleteकिन्तु बटना तो सरल है जोड़ना कठीन है ...
"घर के बर्तनों की खनक पर उन्हें बाटा नहीं जाता !
रिश्तो की नाज़ुक डोर को कटा नहीं जाता"
क्षमा चाहूंगी पर सबकी अपनी सोच होती है....रचना सुन्दर है !
बाँट लो अपना घरौंदा,
ReplyDeleteताकि हंस कर मिल सके |
बिलकुल सही बात है सुन्दर रचना के लिये बधाई