Saturday, April 17, 2010

मैं भुला नाम अपना भी


किताबों को लगा दिल से,
वो पहली बार जब आई |
मैं भुला नाम अपना भी,
चली कुछ ऐसी पुरवाई |

वो चलना यार झुक कर के,
हवा के वेग के जैसा |
मैं भुला नाम अपना भी,
वो जब भी सामने आई |

बहुत चंचल हुआ करता था,
मैं भी उन दिनों में पर |
नहीं कुछ बोल पाया मैं,
वो जब भी सामने आई |

मैं यादों के समंदर में,
लगा गोते हुआ विजयी |
मगर वो दिल कि बातों को,
कहाँ अब भी समझ पाई |

सुना है अब तलक मुझसा,
एक साथी ढूंढती है वो |
जो उसके साथ था हरदम,
उसे वो ढूंढ ना पाई |

उसे नफ़रत थी गजलों से,
मुझे कुछ लोग कहतें थे |
हर ग़ज़ल नाम थी उसके,
जिसे वो पढ़ नहीं पाई |

किताबों को लगा दिल से,
वो पहली बार जब आई |
मैं भुला नाम अपना भी,
चली कुछ ऐसी पुरवाई |

9 comments:

  1. किताबों को लगा दिल से,
    वो पहली बार जब आई |
    मैं भुला नाम अपना भी,
    चली कुछ ऐसी पुरवाई |


    waqay me jabardat maza aa gaya pad kar


    shekhar kumawat

    http://kavyawani.blogspot.com/

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  2. बहुत बढ़िया!! ऐसी पुरवाई चले तो नाम भूलना स्वभाविक है.

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  3. उसे नफ़रत थी गजलों से,
    मुझे कुछ लोग कहतें थे |
    हर ग़ज़ल नाम थी उसके,
    जिसे वो पढ़ नहीं पाई |

    सुन्दर ...............

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  4. bajut sundar kaha....hota hai aksar prem rang me rangne ke baad

    http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

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  5. @Samir ji,suman ji,kumavat ji & Dilip bhai
    Ap sabhi ka tahe dil se dhanyawad...
    aage bhi isi prakar pyar banaye rakhe...

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  6. kya baat ladke.Abhi tak usse bhool nahi payya. Ab to uski shaadi ho gayi hai yaar..... Bhool ja.

    Waise good one.

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  7. बहुत बढ़िया,
    बड़ी खूबसूरती से कही अपनी बात आपने.....
    पूरी कविता दिल को छू कर वही रहने की बात कह रही है

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