आंख पर चादर लपेटे, धूप में लेटे हुए,
मैं सूर्य की किरणों से भी पंजा लड़ना जनता हूँ ।
ओस की बूंदों को मसला है कई दिन भोर में,
मैं पंख अपने खोल कर भी फडफडाना जनता हूँ ।
मैं भटक कर राह में, वापस भी आना जनता हूँ,
दिल में रख कर गम, ख़ुशी में मुस्कुराना जनता हूँ ।
मखमली घांसों की लत अब तक लगी नहीं ,
मैं तो काँटों में भी नंगे पाँव चलना जनता हूँ ।
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