Saturday, February 21, 2009

बिष उगलता आया हूँ

में नदी के नीर सा,
बहता गया एक ओर
अनगिनत सपनों से होकर,
मैं बहा किस ओर |
मैं बहा किस ओर ,
मुझको क्या ख़बर है,
मंजिल की दिल में चाह,
सिने में सबर है |
उद्गम में जो उन्माद था,
कुछ थम सा गया है |
अंत का साया भी,
कुछ गहरा गया है
हर किनारे पर कई
सपने सजा कर आया हूँ,
कुछ मछलियों को नई
मंजिल दिला कर आया हूँ |
बह रहा हूँ बिन रुके,
फ़िर भी किनारे कोसते है |
सच है सायद ये भी की,
उनको जुदा कर आया हूँ |
रत्न मानिक सब मेरे,
मझधार में ही खो गए,
बस ये खर पतवार ही,
मैं संग बहा कर लाया हूँ |
अब फसल मेरे वजह से
जल रहे हैं खेत में,
हर बूंद में अपने में इतना,
बिष उगलता आया हूँ |
मैं न इतना क्रूर था
जिस पल चला था सैर पर
कौन जाने की ये दुर्गुण,
मैं कहाँ से लाया हूँ |

7 comments:

  1. गली छूटी, गला छूटा , मोहल्ला भी, मोहब्बत भी | है उसकी याद बस दिल मे, नही बाकी बचा कुछ भी ||
    क्या बात है- बहूत सुंदर

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  2. ek sashakt sundar rachana,har lafz par waah hi nikli.

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  3. यादो मे बसा कर रख लो यही सही,
    बहुत ही सुंदर कहा दिल के करीब बहुत ही करीब, है इस रचना की पकंतिया आप ने धन्यवाद,

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  4. बहुत उम्दा रचना.

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  5. बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

    मैं न इतना क्रूर था
    जिस पल चला था सैर पर
    कौन जाने की ये दुर्गुण,
    मैं कहाँ से लाया हूँ |

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  6. बहुत बढ़िया भाव पूर्ण लिखा है आपने सुंदर अभिव्यक्ति

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  7. एहसास की यह अभिव्यक्ति बहुत खूब

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