आख़िर कब तक हम देश हित को दूर रखकर इसी प्रकार से सम्मेलन करते रहेंगे | एक महीने से हम उसे सबूत देने मे जुटे हुए है जो खुद आतंकवाद का सरजमीन तैयार करता है | अब तो ये सोच के शर्म आने लगी है कि अपने देश कि बागडोर कैसे नपुंसको के हाथ मे है जो अपने हितो के लिए भी गैर के दरवाजे पर मत्था टेक रहे है | और एक पड़ोसी देश जिसकी खुद मे कुछ औकात नही है वो हमे जबाबी करवाई कि धमकी पर धमकी दिए जा रहा है |आख़िर ये कूटनीति कब तक सफल होगी ?
है राजनीति का ये बिस्तर,
और महल खड़ा है मुद्दों का |
पेट नही भरता मेरा अब,
इस कूटनीति के दावत से ||
आतंकवाद के नाम पर अब,
जितनी चाहो रोटी सेको |
यहाँ गली ना दाल अगर तो,
फिर दुनियाँ मे मत्था टेको ||
अपनी ग़लती उसके सर पर,
वो और किसी पर थोपेगा |
यही चलन है राजनीति का,
जिसने जाना, शुख भोगेगा ||
औकात नही जिसकी खुद मे,
वो भी हमे राह बताएगा |
और चार दीनो कि बात है ये,
फिर सब वैसा हो जाएगा ||
कल का मुद्दा आज अहम है,
आज कि कल फिर देखेंगे |
आतंकवाद कि पृष्ठ भूमि मे,
हम खुद अपना घर फूंकेंगे ||
अपने घर कि रक्षा को,
कब तक घुटनो पर रेंगोगे |
अपनी बात मनाने को,
अब किस दर मत्था टेकोगे ||
कल का मुद्दा आज अहम है,
ReplyDeleteआज कि कल फिर देखेंगे |
आतंकवाद कि पृष्ठ भूमि मे,
हम खुद अपना घर फूंकेंगे
samayeek kavita hai--aur aap ki sahi soch hai-aakrosh bhi dikh raha hai-jo sahi hai-
- sirf kagaz-patr likhey jaa rahey hain---koi action hota dikhayee nahin deta..kis baat ka intzaar hai--maluum nahin--
bahut hi achchee kavita Tapashwani ji.
Nav-varsh ki dheron shubhkamnayen.